किसान आन्दोलनः बीच का रास्ता निकालने की जरूरत

NEW DELHI, DEC 1 (UNI):- Farmers blocking National Highway at Delhi Haryana Singhu border during their Delhi Chalo protest against farm laws on Tuesday.UNI PHOTO-AK13U

 

 

ऋतुपर्ण दवे:-
क्या किसान मजबूर है और खेती मजबूरी? यह प्रश्न बहुत अहम हो गया है। अब लग रहा है कि किसानों की स्थिति ‘उगलत लीलत पीर घनेरी’ जैसे हो गई है। बदले हुए सामाजिक व राजनीतिक परिवेश में वाकई किसानों की हैसियत और रुतबा घटा है। किसान अन्नदाता जरूर है लेकिन उसकी पीड़ा बहुत गहरी है। एक ओर खेती का घटता रकबा बड़ा सवाल है तो दूसरी ओर बढ़ती लागत। घटते दाम से पहले ही किसान परेशान है।
3-4 डिग्री सेल्सियस की कड़कड़ाती ठण्ड और सर्द हवाओं ने दिल्ली सहित देश के काफी बड़े भू-भाग को जबरदस्त ठिठुरन में जकड़ लिया है। ऐसे में धीरे-धीरे महीने भर होने को आ रहे किसान आन्दोलन और शरीर को तोड़ देने वाली ठिठुरन के बावजूद किसानों का न टूटना बता रहा है कि आन्दोलन, किसानों के भविष्य की चिन्ताओं से प्रभावित है।
किसान आन्दोलन को लेकर बीच का कोई रास्ता दिख नहीं रहा है। न तो सरकार झुकने को तैयार है और न ही किसान। 135 करोड़ की आबादी वाले भारत में लगभग 60 प्रतिशत आबादी के भरण-पोषण का जरिया खेती है। ऐसे में किसान अपनी उपज की खातिर एमएसपी, खेत छिन जाने का डर और बिजली जैसी समस्याओं से डरे हुए हैं। लेकिन सरकार का भी अपने बनाए कानून को वापस लेना साख का सवाल बन गया है। इस बीच देश की सर्वोच्च अदालत की सलाह भी बेहद अहम है। कुल मिलाकर आन्दोलन के पेंच को सुलझाने के लिए बीच का रास्ता बेहद जरूरी है। जिन तीनों कानूनों को लेकर आन्दोलन चल रहा है उसे होल्ड कर देने में भी सरकार की साख पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। वहीं किसानों को भी लगेगा कि उनके लिए एक रास्ता बन रहा है। इस बीच दोनों को समय मिल जाएगा और नए सिरे से बातचीत की संभावनाओं से भी नया कुछ निकल सकता है। इससे न तुम जीते न हम हारे वाली स्थिति होगी और रास्ता भी निकल सकता है।
आसमान के नीचे सड़क पर लगभग महीने भर से बैठे किसानों ने समय के साथ काफी कुछ बदलते देखा है। जहां नई पीढ़ी खेती के बजाए शहरों को पलायन कर मजदूरी को ही अच्छा मानती है, वहीं जमीन के मोह में गांव में पड़ा असहाय किसान कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि का दंश झेलता है। कभी भरपूर फसल के बाद भी उचित दाम न मिलने और पुराने कर्ज को न चुका पाने से घबराकर मौत का रास्ता चुनता है।
सरकार चिन्तित तो दिखती है लेकिन किसानों को भरोसा नहीं है। किसानों के लिए बने तीनों कानूनों में कहीं न कहीं किसानों की समृध्दि का दावा तो सरकार कर रही है लेकिन इसमें किसान संगठनों को अपने ही खेत-खलिहान की सुरक्षा और मालिकाना हक से वंचित कर दिए जाने का भय सता रहा है। कुल मिलाकर स्थिति जबरदस्त भ्रम जैसी बनी हुई है।
किसानों को लेकर सभी को सहमति और संवेदनाओं को जगाना होगा। सरकारी स्तर पर भी बड़ी मदद की जरूरत है। हर समय सरकारी इमदाद को मोहताज किसान, विभिन्न संगठनों का साथ मिलने से मानसिक रूप से मजबूत होगा। इससे न केवल अवसाद से बाहर निकलेगा बल्कि स्थानीय स्तर पर सुगठित व्यावसायिक मंच का हिस्सा बनने, कृषि को व्यवसाय के नजरिया से भी देखेगा। इसका फायदा जहां किसानों को भ्रम से बचाने और जीवन को संवारने में तो मिलेगा ही व्यापारिक-वाणिज्यिक संस्था से जुड़े होने से कृषि उत्पादों के विक्रय और विपणन के लिए मित्रवत उचित माहौल तैयार होगा।
ऐसा हुआ तो एकबार फिर खेती, धंधा बनकर लहलहा उठेगी। व्यापार भी फलीभूत होगा और छोटे-मंझोले, बड़े हर वर्ग के किसानों के लिए यह वरदान साबित होगा। शायद किसान भी यही चाहता है और सरकार भी। ऐसे में बीच का भ्रम क्यों बढ़ रहा है यह दोनों को ही समझना होगा। इसके लिए सर्वोच्च अदालत के सुझाव से बेहतर कुछ हो नहीं सकता।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)