कट्टरपंथी आतंकवादऔर माओवादियों का आंतरिक गठजोड़ उजागर
कुछ राजनेताओं का समर्थन आश्चर्यजनक…?
रमेश शर्मा:—
दिल्ली के लालकिला क्षेत्र में हुये विस्फोट और छत्तीसगढ़ में कुख्यात नक्सली हिड़मा के एनकाउंटर के बाद घटे घटनाक्रम से कट्टरपंथी आतंकवाद और माओवादियों के बीच आंतरिक गठबन्धन तो उजागर हुआ है। वहीं क्रूरतम षड्यंत्रों पर परदा डालने केलिये कुछ राजनेताओं की राजनीति भी आश्चर्यजनक है।
हिंसा, आतंकवाद, सामूहिक नरसंहार और क्रूरतम यातनाएँ देकर भारत का सामाजिक-साँस्कृतिक रूपांतरण करने का षड्यंत्र पुराना है। इसमें अनेक शक्तियाँ सक्रिय हैं। बाहर से देखने में तो इनके नाम, रंग रूप, पहनावा और कार्यशैली अलग दिखती है। कोई स्वयं को कट्टरपंथी धर्म समर्थक जेहादी कहे या धर्म विरोधी माओवादी लेकिन भारत विरोधी गतिविधियों में सबके तार एक दूसरे से जुड़े लगते हैं। मानों इन सबका संचालन किसी एक सूत्र से हो रहा हो। लेकिन भारत के कुछ राजनैतिक दलों से संबंधित नेताओं द्वारा इनके समर्थन और संरक्षण केलिये खुलकर सामने आना आश्चर्यजनक इसकी झलक समय समय पर सामने आती रही है। इसकी झलक एक बार फिर हाल ही देश में घटे दो बड़े घटनाक्रमों में देखने को मिली। पहली घटना दिल्ली के लालकिला क्षेत्र में हुये विस्फोट के बाद आतंकवादियों के सामने आये नेटवर्क की है और दूसरी घटना सुदूर छत्तीसगढ़ में कुख्यात नक्सली हिड़मा के एनकाउंटर की है। इन दोनों घटनाओं ने यह आंतरिक गठजोड़ और उनके समर्थकों के चेहरे एक बार फिर उजागर किये हैं। पुलिस एनकाउंटर में मारे गये कुख्यात नक्सली हिड़मा के समर्थन में भी ठीक उसी प्रकार नारे लगे जैसे वर्ष 2016 में आतंकवादी अफजल के समर्थन में लगे थे।
छत्तीसगढ़ सरकार ने इन दिनों नक्सलवाद को समाप्त करने का अभियान चलाया हुआ है। इस अभियान के अंतर्गत पिछले दिनों कुख्यात नक्सली हिड़मा मारा गया। हिड़मा साधारण नहीं था। वह नक्सली कमांडर था। उसके नेतृत्व में अनेक नक्सली हिंसक समूह सक्रिय थे। छै राज्यों की पुलिस उसे ढूँढ रही थी। अलग अलग राज्यों ने उसकी तलाश केलिये जो पुरस्कार राशि घोषित की थी वह भी लगभग एक करोड़ अस्सी लाख रुपये होती है। इस पुरुस्कार राशि से ही उसके क्रूरतम और खूंखार रहने का अनुमान लगाया जा सकता है। अकेले छत्तीसगढ़ में हिड़मा पर दो दर्जन से अधिक मामले दर्ज थे। अकेले एर्राबोर क्षेत्र में डेढ़ सौ से अधिक निर्दोष नागरिकों की हत्या करने का आरोपी था। इसमें सुरक्षा बल के जवानों की संख्या अस्सी से अधिक है। इसके अतिरिक्त आसिरगुड़ा, चिंतागुफा, कासलपाड़, बुरकापाल, मिनपा, टेकलगुड़म और पिडमेल आदि स्थानों में घात लगाकर सुरक्षाबलों पर किये गये हमलों और अधिक निर्मम हत्याओं के पीछे नक्सली हिड़मा का नाम आता है। ऐसे दुर्दांत हत्यारे के समर्थन में भारत के तीन अलग अलग स्थानों से आवाज सुनी गई। सबसे पहले छत्तीसगढ़ से एक वीडियो जारी हुआ। इस वीडियो को देशभर में सोशल मीडिया पर फैलाया गया। इसे नक्सल समर्थक महिला सोनी सोढ़ी ने तैयार किया था जिसमें हिड़मा की मौत को एनकाउंटर नहीं “हत्या” बताया गया। वीडियो में कोर्ट जाने की बात भी कही है। इस वीडियो को काँग्रेस नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह ने शेयर किया और एनकाउंटर पर प्रश्न खड़े किये। नक्सली हिड़मा के एनकाउंटर से पहले छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल सरकार के नक्सल विरोधी अभियान पर प्रश्न खड़े कर चुके थे। उन्होंने अभियान को आदिवासी पर हमले निरूपित किया था। लेकिन जो नारा दिल्ली में सुना गया उसने नक्सलवाद को कट्टरपंथी आतंकवाद से तार जुड़े होने को एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को लेकर इन दिनों एक प्रदर्शन चल रहा है। प्रदर्शन तो प्रदूषण पर है लेकिन इसमें नारे हिड़मा के समर्थन में लगे। एक नारा था-“तुम कितने हिड़मा मारोगे, हर घर से हिड़मा निकलेगा”। यह नारा ठीक वैसा ही है जैसा वर्ष 2016 में कुख्यात आतंकवादी अफजल की बरसी पर लगे था। उस नारे में कहा गया था- “तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा”। इसके अतिरिक्त और भी देश विरोधी नारे लगे थे। अब नौ वर्ष बाद हिड़मा केलिये भी ठीक उसी प्रकार नारा लगा। इसमें शब्द और शैली वही है जो अफजल के समर्थन में थी। केवल नाम का अंतर आया है। कहने केलिये मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवाद और माओवाद दोनों अलग अलग धारायें हैं। एक अपने धर्म केलिये कट्टर है तो दूसरा धर्म विरोधी नास्तिक। वैचारिक दृष्टि से इनमें कोई मेल नहीं है। लेकिन भारत के सांस्कृतिक स्वरूप पर हमला करने केलिये दोनों के बीच गहरा गठबंधन है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि आतंकवादी अफजल को फाँसी मिलने की बरसी उस जेएनयू में मनाई गई थी जो मार्क्सवाद और माओवाद का वैचारिक केन्द्र माना जाता है। तब भी यह प्रश्न उठा था कि कट्टरपंथी जेहादियों और माओवाद के बीच कितना गहरा गठजोड़ है। जो अब हिड़मा के एनकाउंटर के बाद पुनः दोनों का आंतरिक गठजोड़ स्पष्ट हुआ।
आतंकवाद समर्थक राजनीति
एक ओर भारत विरोधी विभिन्न शक्तियाँ एकजुट होकर हिंसा और आतंक के नये नये तरीके अपना रहीं हैं वहीं कुछ राजनैतिक दलों के नेताओं का समर्थन भी आश्चर्यजनक है। हिड़मा एनकाउंटर पर काँग्रेस पार्टी से संबंधित दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के वक्तव्य सामने आये तो दिल्ली के लालकिला क्षेत्र में हुये आतंकी विस्फोट में काँग्रेस के तीन नेताओं के ऐसे वक्तव्य आये जिनमें इन आतंकवादियों के प्रति सद्भाव की स्पष्ट झलक है। यह विस्फोट भारत में आतंकवाद की कोई पहली घटना नहीं थी। इससे पहले भी दिल्ली सहित भारत के विभिन्न नगरों और महत्वपूर्ण स्थलों पर विस्फोट हुये हैं लेकिन यह घटना साधारण नहीं थी। इससे जुड़े आतंकवादी न तो सीमापार से आये थे और न उन्होंने किसी निर्जन क्षेत्र में बने अड्डे में आतंकवाद का प्रशिक्षण लिया था। यह सब महानगरों में रहने वाले उच्च शिक्षित युवा हैं। विश्वविद्यालय परिसर इनकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था।इनका नेटवर्क पन्द्रह राज्यों में फैला है और पाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की और हमास आदि से भी नेटवर्क जुड़ा हैं। वे ड्रोन से हमला करने और हिन्दू धार्मिक स्थलों के पानी में जहर मिलाकर लाखों लोगों को मार डालने की योजना बना रहे थे। गिरफ्तारियों में अनेक चौंकाने वाले विवरण सामने आये हैं। फिर भी काँग्रेस से जुड़े नेता उनके समर्थन में दिखे। पहला वक्तव्य काँग्रेस नेता श्री राशिद अल्वी का आया। उन्होंने प्रश्न उठाया कि “आखिर किस मजबूरी में ये हिंसा की राह पकड़ रहे हैं। “वो पढ़ा-लिखा नौजवान जिसने एमबीबीएस और एमडी किया है, वह आतंक का रास्ता क्यों अपनाएगा? इसपर मोदीजी विचार करें”। दूसरा वक्तव्य कांग्रेस सांसद इमरान मसूद का आया। उन्होंने विस्फोट में शामिल लोगों को गुमराह बताया था। यह भाषा शैली वही है जैसी कश्मीर के आतंकवाद पर पर्दा डालने केलिये कुछ नेताओं ने भटके हुये नौजवान बताया था। इन दो वक्तव्यों से एक कदम आगे जमीयत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी का आया। उन्होंने दिल्ली में घटी इस आतंकवादी घटना के बाद हुई गिरफ्तारियों को मुसलमानों से जोड़ा और कयी प्रश्न खड़े किये। उनके ब्यान का समर्थन करने में कांग्रेस नेता उदित राज ने देर नहीं की और सुरक्षाबलोंकी धरपकड़ को उत्पीड़न की श्रेणी में माना।
एक ओर क्रूरतम हिंसकों का गठजोड़ जहाँ भारत की प्रकृति ही नहीं उसके साँस्कृतिक और सामाजिक स्वरूप केलिये नई नई चुनौतियाँ खड़ी कर रहा है वहीं दूसरी ओर कुछ राजनैतिक दलों और उनके नेताओं द्वारा केवल राजनीति केलिये ऐसे वक्तव्य देना अपने आप में एक चिंताजनक और विचारणीय विन्दु है। ये वक्तव्य उनकी तुष्टीकरण की राजनीति के तो उपयुक्त हो सकते हैं लेकिन ये राष्ट्रनीति के विरुद्ध ही माने जायेंगे।