एमपी में सरकारी अव्यवस्थाओं के कारण कोविड से अधिक जानलेवा साबित हो रहा है ब्लैक फंगस

 

दीपक गोस्वामी :
देशभर में कोरोना संक्रमितों या इससे उबर चुके लोगों में ब्लैक फंगस संक्रमण देखा जा रहा है, पर मध्य प्रदेश में स्थिति बेहद ख़राब है. लगातार कई शहरों में बढ़ते मामलों और मौत की ख़बरों के बीच दवा और इंजेक्शन का अभाव तो बना ही है, वहीं सरकार को अब तक राज्य में आए ऐसे कुल मामलों की जानकारी तक नहीं है.ग्वालियर की 43 वर्षीय रमा शर्मा अप्रैल के आखिरी दिनों में कोरोना संक्रमित पाई गई थीं. ऑक्सीजन लेवल गिरने पर उन्हें अंचल के सबसे बड़े अस्पताल जयारोग्य में भर्ती कराया गया.

इसी दौरान रमा के भाई धर्मेंद्र भी संक्रमित होकर शहर के एक निजी अस्पताल में भर्ती हो हुए. धर्मेंद्र घबराएं नहीं इसलिए परिजनों ने रमा के अस्पताल में भर्ती होने की बात उनसे छिपा ली लेकिन जब जयारोग्य अस्पताल की अव्यवस्थाओं के चलते रमा की हालत बिगड़ने लगी, तब धर्मेंद्र को बताया गया.

उन्होंने तुरंत रमा को भी उसी निजी अस्पताल में शिफ्ट करवाया जहां वे भर्ती थे. धर्मेंद्र की हालत में पहले से सुधार था लेकिन रमा की सांसों को सामान्य बनाए रखने के लिए उस रेमडेसिविर इंजेक्शन की जरूरत थी, जिसकी बाजार में किल्लत थी. जब भाई से अपनी बहन की उखड़ती सांसें नहीं देखी गईं तो उन्होंने अपना इलाज पूरा होने से पहले ही अस्पताल से छुट्टी करा ली, ताकि बहन के लिए रेमडेसिविर का इंतजाम कर सकें.

इंजेक्शन का इंतजाम हो भी गया, रमा की सेहत भी सुधरने लगी, लेकिन उनके चेहरे और आंखों पर सूजन आने लगी. धर्मेंद्र बताते हैं, ‘डॉक्टर को इस संबंध में बताया तो उन्होंने इसे सामान्य सूजन बताते हुए लगातार ऑक्सीजन मास्क लगाने जैसे कुछ कारण गिनाए और दवा दे दी. पांच-छह दिन बाद सूजन इतनी बढ़ गई कि एक आंख बंद हो गई.’

तब ईएनटी (कान, नाक, गला) विशेषज्ञ से परामर्श के बाद रमा का सीटी स्कैन कराया तो इस सूजन के पीछे का कारण म्यूकॉरमाइकोसिस यानी ब्लैक फंगस निकला. देश भर में कोरोना संक्रमित मरीजों या संक्रमण से उबर चुके लोगों में ब्लैक फंगस की समस्या देखी जा रही है लेकिन मध्य प्रदेश में यह विकराल हो गई है. हर दिन मामले दिन दूने, रात चौगुने बढ़ रहे हैं. नतीजतन, बाजार में जरूरी दवाएं उपलब्ध नहीं हैं तो अस्पतालों में बिस्तर.

इंदौर के बॉम्बे हॉस्पिटल में न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. आलोक मांडलीय बताते हैं, ‘यह संक्रमण पहले उन लोगों को होता था जो एचआईवी ग्रस्त हों, जिनकी डायबिटीज अनियंत्रित हो या जिनका अंग प्रत्यारोपण हुआ हो लेकिन अब मामले इतने ज्यादा बढ़े हैं कि जितने पूरे देश में निकलते थे, उतने एक शहर में निकल रहे हैं.’

बात सही है. दो हफ्ते पहले तक ब्लैक फंगस ऐसा रोग था जिसे लोग जानते तक नहीं थे लेकिन अब यह महामारी है. इसकी भयावहता का अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि समय रहते उपचार न मिलने पर तीन से सात दिन में मौत हो सकती है. इसका इलाज चार प्रकार के विशेषज्ञों (ईएनटी, नेत्र, न्यूरो और दंत) की टीम करती है.

एम्स, भोपाल के डेंटिस्ट्री विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अंशुल राय कोरोना संक्रमितों में बढ़ते इस खतरे को लेकर बताते हैं, ‘इनमें फंगस इसलिए बढ़ा क्योंकि इलाज में स्टेरॉयड्स की भारी मात्रा देनी पड़ती है. स्टेरॉयड्स से इम्यून सिस्टम कमजोर होता है. तब इस फंगस को बढ़ने का वातावरण मिलता है. यह एक ‘ऑपर्च्युनिस्टिक फंगल इंफेक्शन’ है जो मौका देखकर हमला करता है.’

इंदौर के एमवायएच अस्पताल में ब्लैक फंगस के मरीजों का इलाज कर रहीं नेत्र विभाग की प्रोफेसर डॉ. श्वेता वालिया थोड़ा और विस्तार से समझाती हैं, ‘फंगस स्पोर्स (बीजाणु) हमारी नाक और साइनस में पहले से मौजूद रहते हैं. कोरोना होने पर स्टेरॉयड से इलाज होता है जिससे ब्लड शुगर बढ़ती है और इम्यून सिस्टम कमजोर होता है. जिसके चलते नाक और साइनस में मौजूद फंगस बीजाणु बढ़ने लगते हैं.’

ये बीजाणु कैसे जानलेवा साबित होते हैं, इस पर डॉ. आलोक कहते हैं, ‘फंगस वातावरण में हर जगह मौजूद है जो नाक के जरिये साइनस पर हमला करता है. वहां अपनी कॉलोनी बनाकर बढ़ता है. साइनस की हड्डी को नुकसान पहुंचाता है. फिर आंख की ओर बढ़ता है. आंख की दूसरी तरफ व नसों पर दबाव डालता है और आदमी को दिखना बंद हो जाता है. आंखें तक बाहर आ जाती हैं जिन्हें शरीर से निकालना पड़ता है. ऐसा न करने पर फंगस दिमाग की ओर बढ़ता है और खून सप्लाई करने वाली नसों पर हमला करके पैरालिसिस अटैक लाता है.’

वे आगे बताते हैं, ‘कई बार दिमाग में फंगस पॉकेट्स बन जाते हैं और यह जान पर हावी हो जाता है. समय पर उपचार न मिलने पर मृत्यु दर 100 फीसदी होती है. मरीज को बचाना असंभव होता है. साइनस या नाक के आस-पास फंगस मौजूद रहते इलाज मिल जाए तो मरीज बच जाता है. जब फंगस आंख तक पहुंच जाए तो उम्मीद थोड़ी कम होती है. दिमाग तक पहुंचने पर बेहद ही कम.’

डॉ. अंशुल के मुताबिक, ब्लैक फंगस बहुत कम मरीजों में जानलेवा साबित होता है क्योंकि इसके दिमाग तक पहुंचने पर ही मौत संभव है. समय रहते पहचान होने पर यह उपचारात्मक है.

फंगस (नाक, आंख या दिमाग) कहीं भी हो, उसे बाहर निकालने के लिए ऑपरेशन जरूरी है. ऑपरेशन बाद फंगस वापस न पनपे, इसके लिए मरीज को अगले 10-20 दिन तक एंटी फंगल इंजेक्शन एंफोटेरेसिन-बी देना जरूरी है. ब्लैक फंगस बीमारी में यह जीवनरक्षक दवा है.

चिकित्सकों के अनुसार, ऑपरेशन के बाद मरीज तभी जीवित रह सकता है जब उसे एंफोटेरेसिन-बी की निर्धारित मात्रा मिले. न मिलने पर मौत निश्चित मानिए.
रमा का भी 10 मई को ऑपरेशन हुआ. 15 मई को उन्होंने दम तोड़ दिया क्योंकि उन्हें एंफोटेरेसिन-बी नहीं मिला.

इसी तरह विदिशा जिले के गंजबासौदा निवासी 42 वर्षीय कमलेश पंथी ने भी एंफोटेरेसिन-बी न मिलने पर दम तोड़ दिया. उन्हें अप्रैल के आखिरी हफ्ते में कोरोना हुआ था. ऑक्सीजन लेवल 70 होने पर पहले उन्हें स्थानीय सिविल अस्पताल, फिर विदिशा जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया.

तीन दिन बाद कमलेश का जबड़ा सूजने लगा, आंखों में सूजन आई और नाक से खून आने लगा. डॉक्टर्स ने इसे दवाओं का सामान्य इंफेक्शन बताया. धीरे-धीरे एक आंख सूजकर चिपक गई और दिखना बंद हो गया.

कमलेश के भाई गौरव बताते हैं, ‘डॉक्टर्स ने तब भी ध्यान नहीं दिया और 6 अप्रैल को स्वस्थ बताकर छुट्टी कर दी. जबकि उनका ऑक्सीजन लेवल 92 था, लेकिन कह दिया कि घर पर ब्रीदिंग एक्सरसाइज कराओ.’

कमलेश के चेहरे और आंखों की बढ़ती सूजन देखकर किसी को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है? तभी परिजनों ने अखबार में ब्लैक फंगस की खबर पढ़ी. तुरंत वे कमलेश को लेकर विदिशा भागे.

जिला अस्पताल में पहले ही लापरवाही हुई थी, इसलिए अब वे एक निजी अस्पताल पहुंचे. वहां विशेषज्ञों ने आंख की पुतली डैमेज बताकर एम्बुलेंस से तुरंत भोपाल जाने कहा. 108 एम्बुलेंस मिली नहीं. यहां मानवता को शर्मसार करने वाला चेहरा तब दिखा जब निजी एम्बुलेंस चालक ने 60 किलोमीटर के 11,000 रुपये मांग लिए.

जैसे-तैसे कमलेश को भोपाल पहुंचाया. अनेक सरकारी-गैर सरकारी अस्पतालों में बिस्तर के लिए भटकने के बाद अंतत: हमीदिया में उन्हें भर्ती कराया. वहां मालूम हुआ कि जिन कमलेश को कभी डायबिटीज नहीं रही, उनका शुगर लेवल 600 पार था.

गौरव आगे बताते हैं, ‘14 मई को रात 11:30 बजे अस्पताल से फोन आया कि कहीं से भी इंजेक्शन लाओ. आधी रात कहां बाजार खुला होता, इसलिए रात भर भोपाल के अलग-अलग अस्पतालों में भटकते रहे. ड्रग इंस्पेक्टर को फोन लगाए. उन्होंने सुबह बात करने कहा. ऐसे-कैसे सुबह का इंतजार करते जब हमारा भाई मरने को था?’

बहरहाल, सुबह भी इंजेक्शन कहीं नहीं मिला और शाम को कमलेश ने दम तोड़ दिया.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)

[द वायर से साभार )

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