उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जताई नाराजगी: कहा- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश
नहीं दे सकतीं, Art-142 न्यूक्लियर मिसाइल?
संविधान एवं विधि के आलोक में उपराष्ट्रपति महोदय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर की गई टिप्पणी निस्संदेह राजनीतिक विमर्श का विषय हो सकती है, परंतु विधिक दृष्टिकोण से इसका परीक्षण अत्यावश्यक है। भारत का संविधान सत्ता के तीनों स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका—के मध्य स्पष्ट विभाजन तथा संतुलन की स्थापना करता है। इस परिप्रेक्ष्य में, सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका केवल ‘संवैधानिक व्याख्याता’ की ही नहीं, अपितु ‘संवैधानिक संरक्षक’ की भी है।
अनुच्छेद 142 का उल्लेख करना प्रासंगिक है, जिसे भारतीय संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को यह सुनिश्चित करने हेतु प्रदान किया है कि “पूर्ण न्याय” (complete justice) किया जा सके। यह अनुच्छेद न्यायालय को असाधारण शक्तियाँ प्रदान करता है, जो उसे किसी भी वाद या कार्यवाही में ऐसा आदेश पारित करने में सक्षम बनाती हैं, जो उसके दृष्टिकोण में न्याय की पूर्णता के लिए आवश्यक हो। यह शक्ति न्यायपालिका को विधायिका या कार्यपालिका की सीमाओं से परे जाकर नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा के अनुरूप चलते हुए न्याय के अंतिम प्रहरी के रूप में सशक्त करती है।
यह मान्यता प्राप्त संवैधानिक सिद्धांत है कि भारत में संविधान सर्वोच्च है—Supremacy of the Constitution—और सभी संवैधानिक पदाधिकारी, चाहे वह राष्ट्रपति हों या उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अधीन हैं, जब तक वे संविधान द्वारा अनुमत और विधिसम्मत हों। यह भी स्मरणीय है कि स्वयं राष्ट्रपति की कार्यवाही भी अनुच्छेद 74 के अधीन मंत्रिपरिषद की सलाह से होती है, और न्यायालय उसके औचित्य की समीक्षा कर सकता है।
“न्यायिक सक्रियता” (Judicial Activism) की आलोचना करने वाले प्राय: यह भूल जाते हैं कि जब अन्य संस्थाएँ अपने उत्तरदायित्वों से च्युत होती हैं, तब न्यायपालिका ही संविधान की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने हेतु अग्रसर होती है। यदि अनुच्छेद 142 को “न्यूक्लियर मिसाइल” कहा गया है, तो यह भी स्वीकार करना होगा कि यह मिसाइल केवल संवैधानिक संतुलन बनाए रखने के लिए प्रयोग होती है, न कि किसी संस्थागत टकराव के लिए।
अतः, यह उचित होगा कि लोकतांत्रिक मर्यादाओं एवं संविधान की गरिमा की रक्षा हेतु सभी संवैधानिक पदाधिकारी अपने-अपने अधिकारक्षेत्र में रहते हुए परस्पर सम्मान एवं संतुलन बनाए रखें। सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना मात्र एक संस्था की नहीं, बल्कि संविधान की मूल आत्मा की अवमानना होगी।
न्याय का अंतिम शब्द—संविधान की मर्यादा का संरक्षण।
सर्वोच्च न्यायालय—संविधान की आत्मा का मुखर वाणी।