_दुष्कृत्य कर्म करने की विवशता का मनोवैज्ञानिक विवेचना और इसका समाधान

 

हम सभी के जीवन में ऐसा हुवा है कि कई बार न चाहते हुए भी हमने ऐसे कृत्य किए हैं, जिनके लिए हमे बाद में पछतावा होता है। इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भगवद्गीता में किया गया है।

 

इंद्रियाणि मनो बुद्द्धि अस्य अधिष्ठानम् उच्यते।।

 

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि, काम ( वासना ) के निवास-स्थान कहे जाते हैं।

 

अर्जुन संसार का सबसे जिज्ञासु शिष्य है। उसने ऐसे ऐसे प्रश्न उठाये हैं जो मनोसंसार ( साइकोलॉजी ) के संसार में शायद ही किसी ने उठाये होंगे। और योगेश्वर कृष्ण उतना ही सधा हुवा उत्तर देते हैं।

तीसरे अध्याय में अर्जुन पूंछता है कि हे वार्ष्णेय मनुष्य इतना अवश ( नियंत्रणहीन या अधीन ) कैसे हो जाता है कि वह उन कृत्यों को करने को विवश हो जाता है जिनको वह करना भी नहीं चाहता, फिर कौन उसे ऐसे कृत्य करने को बाध्य और विवश करता है? कौन उससे वे दुष्कृत्य बलात करवा लेता है?

यह प्रश्न शास्वत और सनातन प्रश्न है, अर्थात जब से मनुष्य जाति जन्मी है और जब तक मनुष्य जाति रहेगी, यह प्रश्न बार बार उसके मन में उठेगा। और उसका उत्तर भी सदैव वही रहेगा जो कृष्ण ने दिया था।

विश्व के कुछ सतहे धर्म कहते हैं कि शैतान करवाता है बुरे कर्म। इसलिए उसको पत्थर से मारते हैं। परंतु यह अवैज्ञानिक सोच है। असंगत विचार है, विवेकहीनता है।

 

इसलिए कृष्ण यह उत्तर नहीं देते। वे बहुत मनोवैज्ञानिक उत्तर देते हैं।

वे कहते हैं कि मनुष्य का स्वभाव, उसका नेचर उसे ऐसा करने को विवश करता है।

 

वे कहते हैं प्रकृति से उतपन्न होने वाले काम और क्रोध इसके मूल में हैं। प्रकृति त्रिगुणा है। तीन गुणों वाली – सत, रज, तम। क्रियात्मक है रज, निषेधात्मक है तम, और समत्व या बैलेंस करने वाली प्रकृति को सत कहते हैं। इन तीनों के बिना न जीवन संभव है न संसार।

 

पिछले कुछ वर्षों में एक विज्ञान की एक नयी शाखा विकसित हुयी है – क्वांटम फिजिक्स। वह प्रकृति के सूक्ष्मतम स्वरूप का अध्धयन करती है। उसने जब परमाणु को तोड़ा तो पाया कि वह तीन अंतिम खंडों में टूटता है – इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रॉन। उनका भी वही काम है जिसको हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व सत रज और तम कहा था।

 

मनुष्य के अंदर कामनाओं का जन्म रजोगुण के कारण होता है। और यदि कामनाओं की पूर्ति में कोई बाधक बन जाय तो क्रोध का जन्म होता है। क्रोध को तमोगुण माना जाता है।

कृष्ण कहते हैं –

गुणा: गुणेषु वर्तन्ते।

एक गुण दूसरे गुण में परिवर्तित होता रहता है। कामनाएं रजोगुण से उत्पन्न हुयीं, उनकी पूर्ति न हुयी तो क्रोध अवसाद विषाद का जन्म हुवा जो तमोगुणी हैं।

 

मन में सहज जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि आखिर काम और क्रोध जैसे भाव और विचारों का निवास स्थान क्या है शरीर में?

कृष्ण कहते हैं – इन्द्रियाणि मनो बुद्द्धि अस्य अधिष्ठानम् उच्चयते।

अर्थात इंद्रियां मन और बुद्द्धि इनका निवास स्थान हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी इनकी चपेट में आये बिना नहीं रह सकता है। दूसरी बात यह है कि जिसके पास जितनी प्रखर बुद्द्धि होगी, वह उतना ही अधिक इनसे ग्रसित होगा। इसीलिये संतों ने कहा –

सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापत जगतगति।

 

अब दूसरा प्रश्न यह उठता है जो अर्जुन के मन में उठा था कि कौन है वह शक्ति जो बलात मनुष्य को उन कर्मों को करने के लिए विवश हो जाता है जिन्हें वह करना भी नहीं चाहता?

 

इसके पूर्व कृष्ण कह आये हैं – इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग द्वेष व्यवस्थितौ।

हमारे मन में राग और द्वेष का निवास होता है। इसका क्या अर्थ हुवा? इसका अर्थ यह हुवा कि हम अपनी शिक्षा संस्कार, परिवार, आदि के द्वारा जो प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, उसमें हमें बचपन से ही भले और बुरे की शिक्षा दी जाती है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि यह शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। हम तो मात्र बता रहे हैं कि हमारा माइंड सेट कैसे विकसित होता है। हम संसार में प्रवेश करते ही, चाहे वह बाहर का संसार हो या अपना मनोजगत, व्यक्तियों, वस्तुओं विचारों और भावों के प्रति चुनाव करना सीख लेते हैं और उसके कारण हमारे अंदर उनके प्रति लगाव या दुराव का मनोभाव निर्मित होने लगता है।

 

लगाव, लाइक, या राग – जब तक बहुत गहरा नहीं है तब तक तो हम उस पर नियंत्रण पा सकते हैं। लेकिन जैसे जैसे यह लगाव, राग, प्रेम, कामना गहन होती जाती है, वैसे ही वैसे हमारा नियंत्रण उसके ऊपर से समाप्त होने लगती है, और हम उसके नियंत्रण में आने लगते हैं। एक सीमा तक तो वह हमारे नियंत्रण में रहता है फिर हम उसके नियंत्रण में आ जाते हैं, उसके अर्थात प्रकृति के। हम प्रकृति के वशीभूत हो जाते हैं। तब वह घटता है जिसकी बात अर्जुन कर रहा है – हम न चाहते हुए भी वह करने को विवश हो जाते हैं, जिसे हम करना भी नहीं चाहते। फिर व्यक्ति मजनू बन सकता है, लैला बन सकती है, हीर बन सकता है, रांझा बन सकती है। और गाने लगता है – मैं लैला लैला चिल्लाऊंगा कुर्ता फाड़कर। प्रेमी भाव वाले पाठक आहत हो सकते हैं, लेकिन क्या उन्होंने उस तरह का कपड़ा फाड़ प्रेम कभी किया है?

 

ठीक ऐसा ही घटता है जब हम किसी वस्तु व्यक्ति विचार या भाव को नापसंद करना शुरू करते हैं, द्वेष करना शुरू करते हैं। जब तक यह द्वेष डिसलाइक या नापसंदगी बहुत गहरी नहीं है तब तक स्थिति हमारे नियंत्रण में रहती है, लेकिन शनैः शनैः वह स्थिति आ सकती है जब द्वेष गहराते गहराते घृणा में, बदल जाए, और वह गहन घृणा में बदल जाए, तब ऐसी स्थिति आ सकती है कि व्यक्ति सामने वाले को क्रोध में आकर गोली मार दे, या उसकी खोपड़ी फोड़ दे, फिर चाहे जीवन भर पछताए या जेल में सड़े। प्रकृति स्वभाव अपना काम करता है।

यह सब बुद्द्धि होने के बावजूद घटेगा।

 

फिर क्या मार्ग बचता है?

प्रकृति का तीसरा गुण – सत यहां काम करता है। जो समत्व लाता है, बैलेंस लाता है, जीवन में; विवेक के पथ पर ले जाता है।

सत – Equidistance. बराबर की दूरी बनाये रखने का अभ्यास। न राग में लिप्त होने का अभ्यास, न द्वेष में लिप्त होने का अभ्यास। समान दूरी बनाए रखने का अभ्यास।

हम जीवन में जिस भी चीज का अभ्यास करेंगे, उसी में कुशल होते जाएंगे। कामना का अभ्यास करो – अनंत कामनाओं का जन्म होगा। क्रोध का अभ्यास करेंगे – दुर्वासा बन जाएंगे।

समता का अभ्यास करेंगे – विवेक के बीज बोयेंगे मनोसंसार में, विवेक का पौधा उगेगा, वह वृक्ष बनेगा, उसमें विवेक के फल लगेंगे। जीवन संतोष, शांति, और आनंद के सुगंध से सुगंधित होने लगेगा।

 

 

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