देवाधिदेव महादेव की आराधना को समर्पित पावन पर्व महाशिवरात्रि

 

फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व शिव-पार्वती के पावन परिणय का मांगलिक पर्व है।

शिव = *श* कार का अर्थ है – सुख और आनंद।

*इ* कार का अर्थ है – पुरुष

*व* कार का अर्थ है – अमृतस्वरूपा शक्ति।

 

इन सब का सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है। जो सदैव कल्याणकारक है, वही शिव है।

 

शिव एवं शक्ति पृथक नहीं है, अपितु एक ही है। शक्ति के बिना शिव सिर्फ “शव” ( निष्प्राण ) बन जाता है, तो शिव अर्थात् कल्याण-भाव के बिना शक्ति विध्वंसक बन जाती है। अतः इन दोनों के सह अस्तित्व एवं संतुलन को दर्शाता है – शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप।

यह प्रकृति-पुरुष का शुभ सुव्यवस्थित मनोविज्ञान है। भौतिक – अध्यात्मिक तत्वों का इसमें मंजुल समन्वय है।

 

शिवलिंग प्रतीक है – विश्व ब्रह्मांड का, जिसके कण-कण में भगवान शिव का वास है। लिंग – अभिषेक का तात्पर्य यह है कि हम विश्व वसुधा के साथ समुन्नत कर रहे हैं। अपने कर्मों को विविध रूपों में शिवरूपी ब्रह्मांड को अर्पण कर रहे हैं। यह समर्पण की भावना ही हमें शिव अर्थात् कल्याण की ओर ले जाती है।

 

शिव पुराण में कहा गया है :-

*माता देवी बिंदुरूपा नादरूप: शिव: पिता।*

*पूजिताभ्यां पितृभ्यां तु परमानन्द एव हि।*

*परमानन्द लाभार्थं शिवलिङ्गं प्रपूजयेत्।।*

 

अर्थात् बिंदुरूपा देवी उमा माता हैं और नादस्वरूप भगवान शिव पिता हैं। इन माता-पिता के पूजित होने से परमानन्द की प्राप्ति होती है। अतः परमानंद का लाभ लेने के लिए शिवलिङ्ग का विशेष रूप से पूजन करें।

 

वास्तव में हमारा पुरातन भारतीय ज्ञान-विज्ञान अत्यंत उच्च कोटि का था। हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने अपनी शोधों के द्वारा यह प्रतिपादित किया था कि शिवलिंग / ज्योतिर्लिंग और कुछ नहीं बल्कि ऊर्जा के अक्षय केंद्र हैं।

अब तो विज्ञान ने भी ज्योतिर्लिंगों के वैज्ञानिक महत्व पर मोहर लगा दी है। भारत सरकार के परमाणु केन्द्रों के अलावा सबसे ज्यादा विकिरण ( रेडिएशन ) देश के द्वादश ज्योतिर्लिंग स्थानों पर ही पाया जाता है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि हमारे परमाणु शोध संस्थान की संरचना भी शिवलिंग जैसी ही है।

 

हमारे ऋषि – मुनियों ने शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा इसलिए डाली थी ताकि उससे उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा तरंगे शांत रहें। जल और दूध के साथ शिवलिंग पर अर्पित किए जाने वाले बिल्व पत्र, आक, धतूरा, आदि पदार्थ भी परमाणु ऊर्जा सोखने वाले पदार्थ होते हैं। चूंकि शिवलिंग पर चढ़ा जल रेडियो-एक्टिव हो जाता है, अतः जल निकासी नलिका को लांघा नहीं जाता।

यह देश का दुर्भाग्य है कि हमें अपनी परंपराओं को समझने के लिए जिस ज्ञान-विज्ञान की आवश्यकता थी, उसे स्वतंत्रता के पश्चात् हमें बताया ही नहीं गया।

 

हमारे ऋषियों ने विज्ञान को परंपराओं का जामा इसलिए पहनाया था ताकि वह जन-साधारण में प्रचलन बन जाए और हम सभी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें।

तभी तो पद्मपुराण में कहा गया है :-

 

*यो न पूजयते लिङ्गं ब्रह्मादीनां प्रकाशकम्।*

*शास्त्रवित्सर्वसवेत्तापि चतुर्वेद: पशुस्तु स:।।*

 

अर्थात् ब्रह्मादि देवताओं के प्रकाशक अथवा ब्रह्मज्ञान आदि को प्रकाशित करने वाले शिवलिंग का जो पूजन नहीं करता, वह चारों वेदों का ज्ञाता तथा शास्त्रों का सर्ववेत्ता होने पर भी पशु के समान है।

 

 

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