किसी भी प्राणी को किसी भी निमित से किंचिन्मात्र कभी दुःख नहीं पहुँचाना चाहिये; क्योंकि दूसरे की हिंसा करके, उसको दुःख पहुँचाकर जो कुछ सुख प्राप्त किया जाता है, उससे बहुत गुना अधिक दुःख दूसरे का अहित करने के फलस्वरूप भोगना पड़ता है | अत: किसी का भी अहित करना अपना ही अहित करना है | ऐसा समझकर दूसरे का अहित किंचिन्मात्र भी भूलकर भी नहीं करना चाहिये | बल्कि सब प्रकार से मन, वाणी, शारीर आदि के द्वारा अभिमान और स्वार्थ से रहित होकर सबके साथ विनययुक्त और सरल व्यवहार करते हुए सबका हित ही करना चाहिये | यह धर्म का सार है | श्रीरामचरितमानस में बताया गया है :–
*परहित सरिस धर्म नहीं भाई |*
*पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||*
( मानस. उतर ४१/१ )
*परहित बस जिन्ह के मन माहीं |* *तिन्ह कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ||*
( मानस. अरण्य.३१/९ )
भगवान् गीता में कहते हैं :–
वे सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं | ( गीता १२/४ का उतरार्ध )
अत: अपनी सारी चेष्टा शास्त्र के अनुकूल और भगवान् की प्रसन्नता के लिये अभिमान और स्वार्थ से रहित होकर सबमे भगवद्भाव रखते हुए केवल सबके हित के उद्देश्य से ही धैर्य और उत्साहपूर्वक करनी चाहिये | इसके विपरीत कभी कोई दूसरी चेष्टा होनी ही नहीं चाहिये | चाहे कोई अपने अनुकूल करे या प्रतिकूल, अपने को सबमे सदा समभाव रखना चाहिये तथा सबके साथ नि:स्वार्थ और समान भाव से प्रेम ही करना चाहिये | इस प्रकार करने से ही मनुष्य जन्म की सफलता है, नहीं तो मनुष्य जन्म व्यर्थ है |