भारत की सनातन हिन्दू परंपरा में मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गए हैं — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष| पुरुषार्थ से तात्पर्य मनुष्य जीवन के लक्ष्य या उद्देश्य से है| इन्हें पुरुषार्थचतुष्टय भी कहते हैं| इनमें भी मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है।
*मोक्ष क्या है?*
जब दृष्टि, दृश्य और दृष्टा एक हो जाते हैं, कहीं कोई भेद नहीं रहता, — वह एक विज्ञानमय सिद्धावस्था है| यह सिद्धावस्था ही मोक्ष है|
गीता के दूसरे अध्याय का ७२वाँ श्लोक –
*एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति|*
*स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||*
( गीता २:७२ )
अर्थात् हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है| इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण ( ब्रह्म के साथ एकत्व ) को प्राप्त होता है|
गीता में बताई हुई यह ब्राह्मी स्थिति ही मोक्ष है| यह ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होने वाली स्थिति है| सब कर्मों का सन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो कर मनुष्य फिर कभी मोहित नहीं होता, यानि मोह को प्राप्त नहीं होता| अंतकाल में ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीन हो जाता है| यही मोक्ष है|
शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा के बृहदारण्यक उपनिषद के स्वाध्याय से यह विषय बहुत अच्छी तरह से समझ में आ सकता है| वहाँ ऋषि याज्ञवल्क्य के ब्रह्मज्ञान पर उपदेश ही उपदेश हैं।जिनका स्वाध्याय जीवन में कम से कम एक बार तो करना ही चाहिए| याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं –
*आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य: |*
अर्थात् अरे यह आत्मा ही देखने ( जानने ) योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है तथा निदिध्यासन ( ध्यान ) करने योग्य है|
अथर्ववेद के माण्डूक्य उपनिषद में कहा गया है –
*अयमात्मा ब्रह्म* – यानि “यह आत्मा ब्रह्म है| ध्यान साधना के लिए यह महावाक्य है| यह आत्मज्ञान ही मोक्ष है|