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{ब्रह्मलीन श्रद्धेयस्वामीरामसुखदासजी महाराज}
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पोस्ट—१०४
* हमने शरीरके साथ सम्बन्ध मान रखा है, तभी मृत्युका भय लगता है | शरीरके साथ हमने दो रीतिसे सम्बन्ध माना है—अभेदपूर्वक {शरीर मैं हूँ} और भेदपूर्वक {शरीर मेरा है} | वास्तवमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ दोनों हैं ही नहीं |
* परमात्माकी आवश्यकता अनन्त जन्म लेनेपर भी मिटेगी नहीं | आवश्यकता पूरी होनेपर संसारकी इच्छा टिकेगी नहीं |
* जैसे उदय होनेके बाद सूर्य अस्तकी ओर ही जा रहा है, ऐसे ही सब संसार अभावकी ओर ही जा रहा है |
* संसारकी इच्छा छोड़ दो तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी, क्योंकि वह प्राप्त है | उसकी इच्छा करनेकी जरूरत नहीं |
* जानेवाली चीजोंका मोह छोड़ दो, पर सेवा मत छोड़ो | उनको रखनेकी इच्छा करोगे तो उनके जानेसे दुःख होगा |
जो नहीं है, वह रहेगा कैसे? जो है, वह मिटेगा कैसे? इसलिये सेवा कर दो, वह रहे तो मौज, जाय तो मौज | सेवा करना आपकी जिम्मेदारी है |
* जैसे विवाह होनेके बाद आप निरन्तर विवाहित रहते हो, कुँवारे नहीं होते, ऐसे ही एक बार भगवान् के हो जाओ, फिर निरन्तर भगवान् के ही रहोगे | हम अपनी तरफसे भगवान् से अलग हुए है? भगवान् की तरफसे अलग नहीं हुए हैं |
* मुक्ति मुफ्तमें होती है | जो अपना नहीं है, उसे अपना न मानें और जो अपना है, उसे अपना मान लें |
* मिली हुई वस्तुसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे आपकी, संसारकी और भगवान् की—तीनोंकी सेवा हो जायगी और तीनों ही राजी हो जायँगे |
हरिःशरणम् ! हरिःशरणम् ! हरिःशरणम् ! हरिःशरणम् !
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{गीताप्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक स्वातिकी बूँदें से पृष्ठ क्रमांक-३६}