शाकाहार_और_मांसाहार. : दोनों के भ्रम से बचें । 

#सभी_सनातनधर्मावलम्बी_ध्यान_दें –

 

#शाकाहार_और_मांसाहार. : दोनों के भ्रम से बचें ।

 

यज्ञशिष्टाहार का प्रसार करें ———–

 

सनातन धर्म में नास्तिकता को प्रश्रय नहीं मिलना चाहिये । मांसाहार और शाकाहार का भेद पशुओं को लेकर होता है, मानवों में यह भेद पाश्चात्य विचारधारा की लीला है । भारतीय सनातन संस्कृति दार्शनिक , वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक धरातल पर पूर्णतः सत्य है , इसीलिये स्वेदज , अण्डज और जरायुज की ही भांति उद्भिज (धरती से उगने वाले ) को भी प्राणी ही समझती है ।

 

उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः ।

ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः ।।

(श्रीमनुस्मृतिः १।४६)

 

अर्थात् बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले (सर्वे स्थावराः) सब स्थावर (एक स्थान पर टिके रहने वाले) जीव वृक्ष आदि (उद्भिज्जाः) ‘उद्भिज’ – भूमि को फाड़कर उगने वाले कहलाते हैं । इनमें (फल – पाकान्ता) फल आने पर पककर सूख जाने वाले और (बहुपुष्पफलोपगाः) जिन पर बहुत फूल – फल लगते हैं , वे ‘ओषधि’ कहलाते हैं ।

 

मा हिंस्यात् सर्वभूतानि – ये वैदिक सिद्धान्त है , इस स्थिति में अचेतन , अर्धचेतन , पूर्णचेतन सभी प्रकार के स्थावर जङ्गम प्राणी अवध्य हैं । तत्र प्राणवियोगप्रयोजनव्यापारो हिंसा – प्राण का शरीर से वियोग आपके द्वारा यदि हुआ तो हिंसा हुई । प्राण का सम्बन्ध शरीर के सभी अंगों से रहता है, ऐसी स्थिति में एक अंग का भी भंग हिंसा की ही कोटि में आता है, क्योंकि उस अंग से आपने अंगी के प्राण का वियोग किया है , अतः केवल पत्ते तोड़कर खाने की बात करने वाले वाले तथाकथित शाकाहारी भी सावधान हो जायें !

 

यही कारण है कि मानव को अभ्युदय एवं निःश्रेयस् की प्राप्ति कराने की भावना से ही जगत् का परिपालन करने वाले जगत्कारण जगदीश्वर भगवान् नारायण ने , यज्ञवेत्ता पुरुष मेरे ही यज्ञात्मक स्वरूप के बल से पापनिवृत्त हो सकता है – इस सत्य को ध्यान में रखकर , भोजन को लेकर अशिष्टाहार और यज्ञशिष्टाहार – ये दो प्रकार का भेद स्वयं उपदेश किया है , यही वैदिकी विचारधारा है । श्री मनुमहाराज के सर्वधर्ममय वाक्य धर्म अधर्म के बोध में सर्वोच्च स्मृतिप्रमाण हैं ।

 

यह लोक में प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जैविक जगत् में मनुष्य सर्वाहारी प्राणी है तथा यह भी प्रत्यक्ष ही देखा जाता है कि शाकाहारी और मांसाहारी – लोक में दोनों ही प्राणियों की पृथकता गोचर रहती है । यह भी प्रत्यक्ष देखने में आता है कि मनुष्य बुद्धिपूर्वक धर्माधर्म विचार करने की क्षमता रखने वाला प्राणी है , ऐसी स्थिति में मनुष्य के आहार पर शास्त्रीय हस्तक्षेप स्वतः सिद्ध हो जाता है ।

 

शास्त्र में जहॉ-जहॉ भी मांस का खण्डन है , वह अशिष्टाहार को लेकर है , तथा जहॉ जहॉ भी मांस का मण्डन है,वह यज्ञशिष्टाहार को लेकर है । महाभारतादि में जहॉ यज्ञविधि की ही आलोचना है , वहॉ वेद के विध्यंश की आलोचना में तात्पर्य न होकर सार्वभौममहाव्रताख्य अहिंसा धर्म में प्रेरणा मात्र प्रयोजन है , अन्यथा तो वेद का ही खण्डन करने से स्वयं महाभारत ही वेदबाह्यस्मृति के रूप में अप्रमाण कोटि में चला जायेगा ।

 

बुद्धिशील होने के उपरान्त भी बहिर्मुखी इन्द्रियों वाला होने के कारण मानव में पञ्चनखेतर प्राणियों में भी रागतः प्रवृत्ति की निवृत्ति की भावना को लेकर , अप्रवृत्तांश में प्रवृत्त कराने हेतु परिसंख्यामुख से शास्त्र भक्ष्य मांस का मण्डन करते हैं किन्तु सर्वत्र परिसंख्याविधि ही है , ऐसा कहना हास्यास्पद है । वेदादि शास्त्रों का अनुशीलन करने पर अपूर्वविधि के भी पर्याप्त दर्शन यथास्थान विद्यमान हैं ।

 

यज्ञशिष्टान्न अमृत है ——-

 

श्री आद्य शङ्कराचार्य कहते हैं कि यथोक्तान् यज्ञान् कृत्वा तच्छिष्टेन कालेन यथाविधिचोदितम् अन्नम् अमृताख्यं भुञ्जते इति यज्ञशिष्टामृतभुजः ।

 

अर्थात् यज्ञों का सम्पादन करके यज्ञों के शेष का नाम यज्ञशिष्ट है, वही अमृत है , उसको जो भोगते हैं, वे यज्ञशिष्ट अमृतभोजी हैं।

 

यह यज्ञशिष्टाख्य अमृत यदि मुमुक्षु द्वारा पाया जाये तो कालातिक्रम की अपेक्षा से अर्थात् मरने के बाद कितने ही कालतक ब्रह्मलोक में रहकर फिर प्रलय के समय ब्रह्म को प्राप्त करा देने की सामर्थ्य रखता है और यदि तदन्य सकामभाव से ही भी पाया जाये तो भी तदनुरूप अभ्युदय अथवा उत्तम लोक की प्राप्ति कराता ही है ।

 

अतः सभी सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि स्वयं को और समाज को नास्तिकता की गर्त में धकेलने से बचें , एवं सद्विवेक को धारण करते हुए निर्भीकतापूर्वक मन्वादि ऋषियों के कहे हुए वैदिक धर्म का ही यथावत् प्रचार प्रसार करें ।

 

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ।।

 

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।

परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ।।

 

यज्ञविधिविमुखाहारी बनकर भगवान् के शब्दों में स्तेन(चोर) न बनें । (यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ) ।

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