मरते समय ध्यान कहां होना चाहिए?

 

 

गीता अध्याय 8 के श्लोक 10-11 में भगवान कहते हैं-

 

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।

 

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। १०।।

 

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।

 

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।। ११।।

 

वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। और हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को(अक्षर) ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परमपद को तेरे लिए संक्षेप में कहूंगा।

 

ओशो समझाते हैं-

 

*1. अंत समय में ध्यान का स्थान*

 

भक्तिपूर्ण व्यक्ति अंत समय में योगबल से प्राण को भृकुटी के मध्य स्थिर करता है। यह स्थान शरीर का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है, जिसे ‘तीसरी आंख’ या ‘शिव नेत्र’ कहा जाता है। यह मुक्ति का द्वार है। ध्यान टिकाने के लिए निर्विचार और निष्कंप स्थिति आवश्यक होती है, क्योंकि एक छोटी सी विचार-लहर भी ध्यान को हटा सकती है।

 

*2. विचार और भाव का अंतर*

 

विचार = तरंग हैं, वे स्थिर नहीं हो सकते। भाव = स्थिर और निस्तरंग हो सकते हैं। निश्चलता केवल भाव में संभव है। प्रेम में यह निष्कंपता प्राप्त हो सकती है। इस सूक्ष्म स्थान (भृकुटी) पर ध्यान केंद्रित करने के लिए नियमित अभ्यास और योगबल आवश्यक है।

 

*3. कबीर की कथा – स्मरण का उदाहरण*

 

जैसे महिलाएं सिर पर घड़ा रखकर गपशप करती हैं, फिर भी घड़े का ध्यान बनाए रखती हैं—वैसे ही प्रेम में डूबा व्यक्ति बाहर से सक्रिय होते हुए भी भीतर स्मरण बनाए रखता है।

 

*4. ध्यान का अभ्यास और चित्त की दिशा*

 

सामान्यतः मनुष्य का ध्यान काम-केंद्र पर रहता है, जो चेतना का सहज लेकिन निम्नगामी मार्ग है। भृकुटी तक पहुँचना ऊर्ध्वगामी और कठिन है। बार-बार नीचे गिरने वाली चेतना को ऊपर उठाने के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक है, अन्यथा अंत समय में ध्यान वहाँ लाना कठिन होता है।

 

*5. योगबल और ‘ओम’ का स्मरण*

 

कृष्ण कहते हैं कि योगबल से प्राण को भृकुटी पर स्थिर कर, निश्चल मन से परमात्मा का स्मरण करें। ‘ॐ’ उस अक्षर का प्रतीक है जो शाश्वत और अविनाशी है। यह अस्तित्व का नाद है जो मौन में प्रकट होता है। यह कोई अर्थ वाला शब्द नहीं, बल्कि अस्तित्व बोधक संकेत है।

 

*6. ओंकार में प्रवेश – मुक्ति का मार्ग*

 

जब ध्यान भृकुटी पर स्थिर हो जाता है, तो ओंकार का नाद गूंजने लगता है। यह नाद अस्तित्व से उत्पन्न होता है और साधक को संसार के पार ले जाने वाला वाहन बनता है। साधक इस नाद के सहारे ऊर्ध्वगति करता है और परम पद को प्राप्त करता है।

 

7. आसक्तिरहित यत्नशील महात्मा

 

जो ज्ञानीजन आसक्तिरहित होते हुए भी यत्नशील रहते हैं, वे ओंकार में प्रवेश करते हैं। मोक्ष की भी इच्छा बंधन बन सकती है। सच्चा वैराग्य वासना-शून्यता है। प्रयास केवल आनंद के लिए होना चाहिए, न कि फल की कामना से।

 

8.

 

सच्चा भक्त मोक्ष की कामना भी नहीं करता, वह कहता है कि उसे केवल परमात्मा की गली और धूल चाहिए। जब प्रेम इतना गहरा हो जाए, तो वही मोक्ष बन जाता है। संन्यास किसी फल के लिए नहीं, बल्कि वह अपने आप में आनंद है।

 

9. ब्रह्मचर्य – प्रभु जैसी चर्या

 

ब्रह्मचर्य केवल संयम नहीं, बल्कि वह जीवनशैली है जिसमें व्यक्ति ऐसे जीता है जैसे प्रभु पहले से मिल चुके हों। जब साधक इस भाव से जीवन जीता है,तभी उसका जीवन ब्रह्मचर्य बनता है और प्रभु से मिलन घटित होता है..!!

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