मन का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह बाहर ही हर चीज खोजता है। तृषित रहना मन का स्वभाव है। वह कभी तृप्त न होगा। परमात्मा ने इंद्रियों को इसी तरह बनाया है कि वह बाहर ही झांकती हैं – आंख, कान, नाक जिह्वा, त्वचा, इन सब के रस के विषय वस्तु बाहरी दुनियां में हैं। ऐसा जानबूझकर बनाया गया है। परमात्मा ने इसे बनाया है जिससे हमारी सुरक्षा हो सके। इसीलिए इंद्रियों को देव कहा गया है।
“इन्द्रिय द्वार झरोखा नाना।
तंह तंह सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं विषय बयारी।
ते हठि देय कपाट उघारी।।
( *रामचरित मानस* )
जो झरोखा है – उसका मूल्य है, लेकिन बहुत मूल्य नहीं है। वह तो प्रवेश द्वार मात्र है। जो ऊर्जा उस झरोखे से बाहर की सूचना हमारे पास पहुंचाती है उसे हम सुर, देव या देवता कहते हैं। जैसे कई बार आंख ठीक होते हुए भी हम देख नहीं सकते – मोतिया हो गया, रेटिना खराब हो गयी, रेटिनल नर्व सूख गयी। चमड़ा ठीक ठाक है परंतु कोढ़ हो गया। संवेदना नष्ट हो गयी। संवेदना को मन तक पहुचाने वाली नस बीमार हो गयी।
देव या सुर अर्थात इंद्रियों और मन को जोड़ने वाला ऊर्जा चैनल, उसको कोई अन्य नाम देता हो मेडिकल साइंस तो कोई अंतर नहीं पड़ता।
देवता नामक जो ऊर्जा का चैनल है वह हमारी सुरक्षा हेतु बना है। डायबिटिक neuropathy हो गयी। पूरा जीवन पैर के घाव का इलाज कराते बीत जाता है।
फिर बारी आती है मन की। नेक्स्ट स्टेशन इन इनफार्मेशन गैदरिंग सिस्टम। इन इंद्रियों से प्राप्त सूचना ऊर्जा चैनल अर्थात देवताओं द्वारा उनके मालिक अर्थात मन के पास पहुँचाया जाता है। इसी को इंद्र भी कहते हैं। यह देवताओं का राजा है। यह न हो तो? अल्ज़हीमेर या dementia हो जाता है। पश्चिमी देशों में आज इनके लाखों मरीज हैं।
मन उन सूचनाओं को अपने अनुभव और मेमोरी में प्रोसेस करके अहंकार को देता है। अहंकार का अर्थ ईगो नहीं है, अहमन्यता है। अहंकार उसको अपनी अहमन्यता के अनुसार बुद्धि को देता है।
बुद्धि भी दो प्रकार की होती है – धर्म ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य वाली या फिर अधर्म अज्ञान अवैराग्य और अनैश्वर्य वाली। जैसी जिसकी बुद्धि हो – सुबुद्धि या दुर्बुद्धि, धर्मराज युधिष्ठिर वाली या दुर्योधन वाली।
बुद्धि का प्रतिबिंब शुद्ध बुद्ध निर्मल चित्त पर पड़ता है। और जैसा व्यक्ति का अहंकार और बुद्धि उस सूचना का विश्लेषण करता है, वैसा ही हम अपने जीवन में अनुभव करते है और तदनुरूप प्रतिक्रिया करते हैं। रिएक्शन, रिस्पांस नहीं। यही सिस्टम है। यही नियम है। इसी को विज्ञान कहो, परमात्मा कहो, जो कहना हो कहो।
इन्द्रियाणि पराणि आहु इंद्रियेभ्यः परः मन:।
मन: तु परे बुद्धि: बुद्धि: तु सः।।
( *भगवद्गीता* )
इंद्रियां और शरीर – हार्डवेयर या वाह्य करण।
मन बुद्धि अहंकार और चित्त – सॉफ्टवेयर या अंतःकरण।
अब बचपन से ही हमें बता दिया जाता है कि कि अभी तुम जैसे हो, उस तरह से अपूर्ण हो। तुम्हें यह बनना है, ऐसे होना है, यह पाना है, वह प्राप्त करना है। अपूर्णता का बोध करा दिया जाता है कि जो अभी है, जो प्राप्त है वह अपर्याप्त है। इसलिए बाहर की तरफ हमारी दौड़ शुरू हो जाती है – बनने की, होने की प्राप्त करने की।
विज्ञान कहता है :-
पूर्णमदम पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णम उदच्यते।
पूर्णस्य एव पूर्णमादाय पूर्णमेव अवशिष्यते।।
( *ईशोपनिषद* )
मन का जन्म हुआ है पूर्ण से। इसलिए पूर्णता उसका स्वभाव है। उसी पूर्णता की खोज में मन बाहर भागता है, अपने करणों द्वारा – ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियां द्वारा। पूर्णता खोजता है।
और इस विराट संसार में पाने को इतना है बाहर कि कितना भी पा लो, कुछ भी बन लो, कभी सम्पूर्ण संसार को नहीं पा सकते। इसीलिए मन की तृष्णा मन की प्यास, मन की खोज कभी समाप्त नहीं होती, हम समाप्त हो जाते हैं।
इसीलिए –
मेरे नैना सावन भादों।
फिर भी मेरा मन प्यासा।