मानसिक संबल को बनाए कैसे रहें और यदि हमारे प्रारब्ध में कुछ दुर्भाग्य लिखा है तो उसे सौभाग्य में कैसे बदलें? इसका जवाब गुरु वसिष्ठ और श्रीराम के बीच हुए धर्म संवाद के रूप में उपलब्ध ‘योगवासिष्ठ:’ में हमें मिलता है।
श्री राम पूछते हैं, “गुरुदेव यदि संसार में सब बातें नियमित हैं ( अर्थात् प्रारब्ध के कारण पहले से ही तय है ) और कार्य-कारण नियम अटल है तो फिर पुरुषार्थ करने से ही क्या होगा? जो होना है, वही होगा, फिर हाथ-पैर पीटने की क्या आवश्यकता?”
वसिष्ठ कहते हैं- “प्रिय राम! इस प्रकार के दृष्टिकोण का आश्रय लेकर बुद्धिमान व्यक्ति को पुरुषार्थ का कभी त्याग नहीं करना चाहिए। नियति पुरुषार्थ के रूप से जगत को नियंत्रित करती है। पुरुषार्थ द्वारा ही नियति सफल होती है। पुरुषार्थ के द्वारा ही फल की प्राप्ति होती है- यह भी नियति का ही एक अंग है। यदि उचित कारण पुरुषार्थ द्वारा उपस्थित नहीं किए जाएंगे तो नि: संदेह इच्छित फल कैसे प्राप्त होगा?”
गुरु वसिष्ठ आगे कहते हैं, “वत्स प्रबल पुरुषार्थ कभी-कभी नियति को भी जीत लेता है। यह जीव पुरुषार्थ के कारण ही ‘पुरुष’ कहलाता है। वह जैसा संकल्प करता है, संसार में वैसा ही होता है। वास्तविक कर्ता जीव का संकल्प ही है, नियति नहीं। नियति तो नियमित रूप से प्रकट होने का नाम है। नियति सृष्टि का नियम है, सृष्टि करने वाली नहीं है।”
अर्थात् सृष्टि का कर्ता तो किसी पुरुष का संकल्प और उस संकल्प के अनुसार किया गया पुरुषार्थ ही है। अतः पुरुषार्थ को न त्यागें। ईश्वर में आस्था रखते हुए, नाम जप, हनुमान चालीसा, रामरक्षा स्तोत्र, विष्णु सहस्रनाम या अपने ईष्ट के सहस्रनाम का प्रतिदिन पाठ करते हुए नियमित पूजा-अर्चना से अपने आचरण और मन को शुद्ध बनाते हुए अपने संकल्प को सुदृढ़ करें और सब कुछ परमात्मा पर छोड़ कर केवल पुरुषार्थ करें।
मेरी दृष्टि में ‘योग वासिष्ठ’ मानव सभ्यता का पहला मनोवैज्ञानिक ग्रंथ है। इसका मैं जितना पठन-पाठन करता जा रहा हूं, उतना ही अपने मन को समझते हुए उससे स्वतंत्र भी होता जा रहा हूं। स्वतंत्रता का आशय यहां मन पर मालकियत से है, जबकि सामान्यतया मनुष्य अपने मन का गुलाम होकर रह गया है। मन को अपने हिसाब से चलाने की विद्या है ‘योगवासिष्ठ’!