#तीर्थयात्रा_की_शास्त्रोक्त_विधि
हमारे धर्म एवं संस्कृति में तीर्थयात्रा का बड़ा महत्व है, कहते है, तीर्थयात्री के लिए कुछ भी वस्तु अलभ्य नही है । वह जो चाहे, वह सबकुछ पा सकता है । किंतु आज के समाज मे , तीर्थयात्रा पर भी सवाल है, लोगो का तीर्थ यात्रा के प्रति, विश्वास कम होता जा रहा है । इसका कारण है, की उनकी मनोकामना पूर्ण नही होती ….
वैसे तो तीर्थयात्रा मनोकामना आदि से कहीं अधिक, अपने पाप मिटाने का साधन है, फिर भी अगर तीर्थयात्रा का पूर्ण फल हासिल करना हो, तो उसके कुछ नियम है …हम तीर्थ यात्रा के वही नियम ओर लाभ आपको बता रहे है ….
हम आपको पुराणों में कहीं गयी तीर्थयात्रा की विधि बतलाते है , जिसका आश्रय लेने पर मनुष्य यात्रा का शास्त्रोक्त फल पा सकता है ।
●तीर्थ यात्रा पुण्यकर्म है । इसका महत्त्व यज्ञों से भी बढ़कर है । बहुत दक्षिणावाले अनिष्टोमादि यज्ञों का अनुष्ठान करके भी मनुष्य उस फलको नहीं पाता , जो तीर्थयात्रा से सुलभ होता है ..।।
●जो अनजानमें भी कभी यहाँ तीर्थयात्रा कर लेता है , वह सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न हो स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । उसे सदा धन – धान्य से भरा हुआ स्थान प्राप्त होता है । वह भोगसम्पन्न और सदा ऐश्वर्य – ज्ञानसे परिपूर्ण होता है ।
●जिसने तीर्थ यात्रा कर ली, उसने नरक से अपने पितरों और पितामहों का उद्धार कर दिया ।
●जिसके हाथ , पैर और मन अपने वश में हैं तथा जो विद्या , तपस्या और कीर्ति से सम्पन्न है , वही तीर्थ के पूर्ण फल का भागी होता है ।
●जो प्रतिग्रह से दूर रहता है और जो कुछ मिल जाय , उसी से संतुष्ट होता है तथा जिसमें अहंकार का सर्वथा अभाव है , वह तीर्थ के फलका भागी होता है ।
●जो संकल्परहित प्रवृत्तिशून्य , स्वल्पाहारी , जितेन्द्रिय तथा सब प्रकार की आसक्तियों से युक्त है , वह तीर्थ के फल का भागी होता है ।
●धीर पुरुष श्रद्धा और एकाग्रतापूर्वक यदि तीर्थों में भ्रमण करता है तो वह पापी होनेपर भी उस पापसे शुद्ध हो जाता है । फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला है , उसके लिये तो कहना ही क्या है ?
●अश्रद्धालु पापपीड़ित , नास्तिक , संशयात्मा और
केवल युक्तिवादी- ये पाँच प्रकार के मनुष्य तीर्थ फल के भागी नहीं होते ।
●पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शान्ति होती है । जिनका अन्तःकरण शुद्ध है , ऐसे मनुष्योंके लिये तीर्थ यथोक्त फल को देनेवाला है ।
●जो काम , क्रोध और लोभ को जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है , उसे उस तीर्थयात्रा से कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रहती ।
●जो यथोक्त विधि से तीर्थयात्रा करते हैं , सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले वे धीर पुरुष स्वर्गगामी होते हैं ।
●गङ्गा आदि तीर्थों में मछलियाँ निवास करती हैं , पक्षीगण देवालय में वास करते हैं ; किंतु उनके चित्त भक्तिभाव से रहित होने के कारण तीर्थसेवन तथा श्रेष्ठ देवमन्दिर में रहनेसे कोई फल नहीं पाते । अतः हृदयकमल में भाव का संग्रह करके एकाग्रचित्त हो तीर्थों का सेवन करना चाहिये ।
●मुनीश्वरों ने तीन प्रकारकी तीर्थ यात्रा बतायी है — कृत , प्रयुक्त तथा अनुमोदित ।
ब्रह्मचारी बालक संयमपूर्वक गुरु की आज्ञामें संलग्न रहकर उक्त तीनों प्रकारकी तीर्थयात्राको विधिपूर्वक सम्पन्न कर लेता है । ( अर्थात् ब्रह्मचर्यपालन , इन्द्रियसंयम तथा गुरु सेवन से उसको गुरुकुल में ही तीर्थयात्रा का पूरा फल मिल जाता है । )
●जो कोई भी पुरुष तीर्थयात्राको जाय , वह पहले घर में ही रहकर पूर्ण संयम का अभ्यास करे और पवित्र एवं सावधान होकर भक्तिभाव से विनम्र हो गणेशजी की पूजा करे ।
●तत्पश्चात् देवताओं , पितरों , ब्राह्मणों तथा साधुपुरुषों का भी अपने वैभव और शक्ति के अनुसार प्रयत्नपूर्वक सत्कार करे ।
●बुद्धिमान् ब्राह्मण तीर्थयात्रा से लौटनेपर भी पुनः पूर्ववत् देवताओं पितरों और ब्राह्मणों का पूजन करे ऐसा करनेपर उसे तीर्थ से जिस फलकी प्राप्ति बतायी गयी है , वह सब यहाँ प्राप्त होता है ।
●प्रयागमें , तीर्थयात्रा में तथा माता – पिता की मृत्यु होने पर अपने केशों का मुण्डन करा देना चाहिये । ऐसा कोई कारण न होने पर व्यर्थ ही सिर न मुड़ावे ।
●जो गया जाने को उद्यत हो , वह विधिपूर्वक श्राद्ध करके तीर्थयात्री का वेश बना ले और अपने समूचे गाँव की परिक्रमा करे । उसके बाद प्रतिदिन किसी से प्रतिग्रह न लेकर पैदल यात्रा करे । गया जाने वाले पुरुषको पग – पगपर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है । जो ऐश्वर्य के अभिमान से अथवा लोभ या मोह से किसी सवारी द्वारा यात्रा करता है , उसकी वह तीर्थयात्रा निष्फल है । इसलिये सवारीका त्याग करे ।
●पैदल तीर्थ यात्रा करने से चौगुने फल की प्राप्ति होती है।।
●तीर्थ में ब्राह्मण की – कदापि परीक्षा न करे । वहाँ याचकरूप से आये हुए ब्राह्मण को भी भोजन कराना चाहिये , ऐसा मनु का कथन है ।
●तीर्थ में किया हुआ श्राद्ध पितरों के लिये तृतिकारक बताया गया है । समय में या असमय में मनुष्य जब भी तीर्थ में पहुँचे तभी उसे तीर्थश्राद्ध और पितृतर्पण अवश्य करना चाहिये ।
●पृथ्वी पर जो तीर्थ हैं , वे साधारण भूमि की अपेक्षा अधिक पुण्यमय क्यों हैं ? इसका कारण है – जैसे शरीर के कुछ अवयव प्रधान माने गये हैं , उसी प्रकार पृथ्वी , जल और तेजके प्रभाव से तथा मुनियों के संगठन से तीर्थों को अधिक पवित्र कहा गया है ।
●जो गङ्गाजी के समीप जाकर मुण्डन नहीं कराता , उसका समस्त शुभ कर्म नहीं किये हुए के समान हो जाता है । सरिताओं में श्रेष्ठ गङ्गाजी के समीप जाने पर कल्पभर के पापों का संग्रह मनुष्य के केशों का आश्रय लेकर स्थित होता है । अतः उन केशों का त्याग कर देना चाहिये ।
●मनुष्य के जितने नख और रोएँ गङ्गाजी के जल में गिरते हैं , उतने सहस्र वर्षों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । जिसके पिता जीवित हैं , वह विधिज्ञ पुरुष तीर्थ में जाने पर क्षौर तो करावे , परंतु मूँछ न मुड़ावे ।
अगले लेख में हम प्रयागराज तीर्थ की महिमा का वर्णन करने का प्रयास करेंगे …. अगर हम प्रयागराज जाने वाले है, तो पहले ” तीर्थ के योग्य ” भी बनना जरूरी है ।