जब-जब हमारी दृष्टि अभाव की ओर जायेगी, तब-तब जीवन में अशांति का प्रवेश एवं मन में उद्वेग होगा। आज हमारी स्थिति यह है कि जो हमे प्राप्त है उसका आनंद तो लेते नहीं, वरन जो प्राप्त नहीं है उसका चिन्तन करके जीवन को शोकमय कर लेते हैं। आज हमारी आशा स्वयं से ज्यादा दूसरों से हो गई है और दूसरों से हमारी यही अपेक्षा हमें कभी सुख से रहने नहीं देती।
दुःख का मूल कारण हमारी आवश्यकताएं नहीं हमारी इच्छाएं हैं। हमारी आवश्यकताएं तो कभी पूर्ण भी हो सकती हैं मगर इच्छाएं नहीं। प्रकृति का एक अटूट नियम है और वो ये कि यहाँ आवश्यकता छोटे- छोटे कीट पतंगों की भी पूरी हो जाती है मगर इच्छाएं तो बड़े-बड़े सम्राटों की भी अधूरी रह जाती है। एक इच्छा पूरी होती है तभी दूसरी खड़ी हो जाती है।
इसलिए शास्त्रकारों ने लिख दिया –
*आशा हि परमं दुखं नैराश्यं परमं सुखं।*
दुःख का मूल हमारी आशा ही हैं। हमे संसार में कोई दुखी नहीं कर सकता, हमारी अपेक्षाएं ही हमे रुलाती हैं। यह भी सत्य है कि बिना इच्छायें न होंगी तो कर्म कैसे होंगे ? इच्छा रहित जीवन में नैराश्य आ जाता है लेकिन अति इच्छा रखने वाले और असंतोषी हमेशा दुखी ही रहते हैं।