महाकुंभ का रहस्य, मह्त्व और शास्त्रों में वर्णन

 

महाकुंभ का रहस्य ।।*_

*स्थान_* प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक ।

*नदियां_* त्रिवेणी, गंगा, शिप्रा, गोदावरी ।
*ग्रहयुति_* सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति।

*सर्व प्रमुख तिथि_* अमावस्या ।

*अवधि_* दो चान्द्र मास ।
*आवर्तन काल_* बारह वर्ष ( कभी कभी ग्यारह वर्ष )

*वृष के बृहस्पति होने पर माघ मास में प्रयाग।*

*कुंभ के बृहस्पति होने पर वैशाख में हरिद्वार।*

*सिंह के बृहस्पति होने पर वैशाख में उज्जैन ।*

*सिंह के बृहस्पति होने पर भाद्रपद में नासिक ।*

उज्जैन और नासिक का कुंभ एकही संवत में लगता है।
दोनों के बीच केवल दो चंद्र मास का अंतराल होता है।

*आध्यात्मिक महत्त्व*
भगवान ब्रह्मा ने भारतवर्ष के चार नगरों में तीर्थजल में
अमृत रसायन डालने का आदेश देवगुरु बृहस्पति को दिया। साक्षी बने सूर्य और चन्द्र। सूर्य चन्द्र की जब भी युति होती है तिथि अमावस्या होती है।अतः सर्व प्रमुख
तिथि अमावस्या होती है। सर्वप्रमुख काल ब्राह्म मुहूर्त से लेकर सूर्योदय तक का होता है। गौण काल सूर्यास्त तक।

जल सोम तत्त्व है जिसका राजा चंद्रमा है। अमृत रसायन को देवगुरु बृहस्पति अपनी रश्मियों से तीर्थ जल में निक्षेपित करते हैं जिसे भगवान सूर्य मकर राशि के काल में पृथ्वी तक निर्विघ्न पहुंचाते हैं। महाकुंभ में सोम तत्त्व और अमृत तत्व का सम्मिलन होता है जो आत्मा को मोक्ष मार्ग पर ले जाता है। एक दीर्घजीवी व्यक्ति अपने जीवन में दश बार कुंभ स्नान कर सकता है। शैशव काल में माता पिता कुंभ स्नान कराते हैं
कुम्भ के अतिविशिष्ट क्षणों में योगी कुंभक विधि से द्रुपदा गायत्री का जप जलके भीतर करते हैं। शेव योगियों में यह
गुप्त विधि चलती थी।
मोक्ष एक जटिल और अनेक जन्म साध्य प्रक्रिया है। अतः इसे एक स्नान विधि से सरल तम प्रक्रिया में महाकुंभ उतारता है। भगवान ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि को यह सरल उपाय दिया है।महाकुंभ मोक्ष प्राप्ति का सरलतम द्वार है।

महाकुंभ में योगी जन और सिद्ध गण स्नान करने आते हैं। इन्हें पहचानने की विधि गुप्त और जटिल है। सभी संभावित तपस्वी को प्रणाम करना कुंभ में मिलने वाला अति विशिष्ट अवसर होता है।
अमृत कुंभ का मुख आकाश की ओर होता है जो विशिष्ट क्षण में तीर्थ में गिरता है। इसे योगी जन गिरते हुए देख पाते हैं। त्राटक सिद्ध व्यक्ति इसे देख सकता है।

 

।। महाकुंभ ( प्रयागराज ) ।।*_

श्रीरामचरितमानस में तुलसी बाबा लिखते है कि जब भरत जी प्रयागराज पहुचे तो उन्होंने संगम को प्रणाम किया और भीख मांगी, और क्षत्रिय और राजपुत्र होकर जब मांगा तो तुलसीदास जी लिखते हैं..

*मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।*

हे सुरसरि गंगा, मैं अत्यंत कष्ट में हूँ और व्यक्ति जब कष्ट में होता है तो धर्म भी छोड़ देता है। वही राजधर्म छोड़कर भरत जी भीख मांग रहे हैं।

क्या भीख ?

*अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।*
*जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।*

मुझे न कोई धन चाहिए, और न धर्म चाहिए, न ही कोई कामना चाहिए।
मुझे तो मुक्ति भी नहीं चाहिए ।

नोट: “ वैसे मुक्ति नित्य प्राप्त है चाहने की वस्तु होती ही नहीं है “

क्या चाहिए? जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।

जितने भी जन्म मिलें उस हर जन्म में केवल राम के पद में मेरी रति बनी रहे ।

जिस दिन आप भरत की दृष्टि से राम पद में अनुराग करेगें, जीवनमुक्त होने की अभिलाषा भी नहीं रहेगी ।

और हमसब भी श्री भरत जी जैसे ही मांगें ..

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।

 

कुंभ महापर्व ।।*_

समुद्र मंथन प्रसंग से कुंभ पर्व का दार्शनिक भाव का दर्शन समझने का प्रयास करते हैं।

हमारे वेद-पुराण समुद्र हैं और ज्ञान मंदराचल पर्वत हैं। कुर्म (कच्छप) सतत कर्म का बल है। वासुकी अर्थात विवेक रूपी रस्सी हमारे शरीर का मेरुदंड है, जहाँ प्राण-अपान वासुकी सर्प रूपी रस्सी है जिसमें धार्मिक और यौगिक कुण्डलिनी शक्ति है। समाज के संत, सज्जन देवता हैं और हमारी दुष्प्रवृति, कुप्रवत्ति ही दैत्य हैं। इस अर्थ में ये संसार समुद्र है। दैवीय और आसुरी वृत्तियों को विवेक रूपी रस्सी ज्ञान रूपी मदराचल का सहयोग लेकर अपने अन्तःकरण रूपी सागर से सत्संग का, चैतन्यता का अमृत खोजने का नाम कुंभ-महापर्व है।
समुद्र मंथन यानी वेदों से ज्ञान पाने की दिशा के प्रयास में प्रारम्भ में विष ही मिलता है। कारण! हल्की चीजें ऊपर ही मिलती हैं। जैसे श्रावण की पहली बूंदें जब जेठ-आषाढ़ से तपी हुई भूमि पर पड़ती हैं तो पहली वर्षा की बूंदों से, बिच्छू, कीट व सर्प और अनेक विषधर ही बाहर आते हैं। इसके बाद और वर्षा का जल पाकर खरपतवार (अर्थात सामान्य ज्ञान रूपी खरपतवार) बाहर आती है। इस सतसंग से नम हुई भूमि पर लगातार हल चलाया जाय तब अमृत रूपी जीवनदायिनी फसल सबसे अंत में आती है।

हां! जब विष मिले तो किसी गुरु का आश्रय लेना ही चाहिये। जब देवताओं को विष से विषाद हुआ तब शिव के पास जाना पड़ा, तब किसी शिव को ढूंढना ही पड़ता है। गुरु हों या त्रिभुवन गुरु उनमें ही सामर्थ्य है विष को दूर करने की। देवताओं की तरह ही त्रिभुवनगुरु शिव जैसे किसी गुरु की करुणा से ही विष आपसे दूर होगा और अमृत रूपी ज्ञान की प्राप्ति संभव होगी। तो कुंभ का महात्म्य संत-संगति है।

कुंभ, 12 वर्ष मंथन व तप से प्राप्त ज्ञान को देश ही नहीं दुनिया के – लोगों में बांटने का माध्यम भी है। 3 वर्ष, 6 वर्ष, 12 वर्षों तक सिद्ध, संत, साधक, गुरुजन, विद्वत वर्ग कठोर तप से अध्ययन, चिंतन, मनन, स्वाध्याय, अनुसंधान कर जो ज्ञान प्राप्त करते थे, उसे मुक्त हस्त से कुंभ जैसे समागम में आकर व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और पूरे विश्व के हित-कल्याण के लिये वितरित करते थे/हैं। इस अर्थ में ज्ञान की पिपासा को शांत करने का माध्यम भी कुंभ महापर्व है।

कुंभ में अनेक अखाड़ों के साथ साथ भिन्न-भिन्न मत, सम्प्रदायों के लोग हों या साकारवादी, निराकारवादी हों, शैव-शाक्त हों या वैष्णव, कौलाचारी हों या सौर-गाणपत्य, सबका संगम कुंभ में होता है यहां तक कि हर धर्म व वर्ग, जाति-वर्ण के लोग साथ आकर पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं और सामाजिक समरसता का संदेश देते हुए सामान्य मनुष्यत्व से देवत्व को स्पर्श कर लेते हैं। तो भेदभाव मिटाने की भूमि भी है कुंभ।

कुंभ शब्द में ही एक विशेष प्रकार की सम्मोहकता है, इतना सम्मोहन है की हिंदू धर्म के अनुयायी अपने प्रत्येक शुभ कार्यों, मांगलिक तीज-त्योहारों, उत्सवों में प्रवेश करने से पहले सर्वप्रथम कुंभ-स्थापन (घट-स्थापन) ही करते हैं। बड़ा ही अद्भुत शब्द है “कुंभ”, वैदिक-पौराणिक काल से लेकर आज तक कुंभ की बड़ी महिमा रही है। कुंभ स्थापन का अर्थ है, किसी भी सत्कर्म में प्रवेश करने से पहले अपना हृदय स्थापित कर देना वरना सत्कर्म भी प्रपंच बन जाता है। गुरु हों या त्रिभुवन गुरु शिव, ये चाहते हैं कि तुम्हारा घट सुंदर बने। घट सुंदर बने, इसके लिये तुम्हें मिट्टी बनना पड़ेगा। विशिष्ट होने के भाव से निकलकर सामान्य बनना पड़ेगा। जाति, कुल, वर्ण, धन, पद के अभिमान से मुक्त होकर सरल बनना पड़ेगा, स्वर्ण-रजत चूर्ण नहीं मिट्टी बनना पड़ेगा। किसी सद्गुरु के चरणों की धूल बनना ही पड़ेगा। मिट्टी जैसे बन गये तो ही अमृत धारण कर सकने योग्य सुंदर कुंभ का निर्माण होगा।

कुंभ-महापर्व का निर्णय करते समय ग्रहों की खगोलीय स्थिति का महत्वपूर्ण स्थान है। कुंभ में ज्योतिष विज्ञान है, खगोल विज्ञान है और आध्यात्मिक विज्ञान भी है। सब न लेकर बस इतना संकेत पर्याय है कि कुंभ में देवगुरु बृहस्पति, सूर्य, चन्द्र और शनि का विशेष सम्बन्ध है जो तात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बृहस्पति हैं गुरु, सूर्य हैं प्रकाश (आत्मज्योति का प्रकाश), चन्द्रमा है मन और शनि हैं मनुष्य का संकल्प बल (वो भी ऐसा संकल्प जो खण्डित रहता है)। ये चारों जब संयोग से एक हो जाते हैं, सुमुख हो जाते हैं, सन्मुख हो जाते हैं तो ही अमृत की प्राप्ति होती है। तो हमें अपने मन के साथ गुरु के सन्मुख होना है ताकि आत्मज्योति का प्रकाश हमारे अन्तस् के अंधकार को मिटा दे। यही कुंभ-महापर्व का महाउत्सव है।

कुंभ की ऐतिहासिकता सर्वविदित है ही। उससे हटकर थोड़ा मंथन कर विचार करें और समझें कि विदेशी आक्रांताओं, इनवेडर्स, लुटेरों के
सैकड़ों आक्रमण झेलने के बाद भी सनातन धर्म के न मिटने का कारण क्या है! जबकि सनातन धर्म के सापेक्ष विश्वभर की अनेक सभ्यताओं के नामोनिशान मिट गये। थोड़ा मंथन करते हैं तो को सनातन हिंदू धर्म के आज तक अक्षुण्ण रहने का बड़ा कारण हमारी परिवार व्यवस्था का बल है। संसार की तरह परिवार भी समुद्र ही है। परिवार रूपी समुद्र को धैर्य की मथनी का आश्रय लेकर निरंतर कर्म की पीठ पर रखकर प्रेम की डोर से मथा जाय तो परिवार में अमृत बना रहता है, साथ में विष दूर करने वाला गुरु हो तो दुर्भाग्य रूपी विष भी निर्मूल हो जाते हैं। सनातन का बल ही परिवार है। यद्यपि वर्तमान का विद्रूप है कि परिवार व्यवस्था संयुक्त परिवार से दूर होते-होते एकल परिवारों तक आ गई है।
इस बार के कुंभ में ये मंथन हो कि कैसे भी सनातन धर्म में सन्निहित संयुक्त परिवार की अवधारणा पुनः स्थापित हो, अब इस कुंभ-महापर्व के जरिए पुनः एकजुट होने व अपने माता-पिता, बंधु-बांधवों के साथ संयुक्त परिवार में मिलकर रहने का भाव पुष्ट हो।
व्यक्तिगत परिवार की तरह ही भारत राष्ट्र भी एक परिवार है, जहाँ धर्म-मत-समप्रदाय के रूप में अलग-अलग सोच, विचार के लोगों का जमावड़ा है। कुंभ ऐसा अकेला महापर्व है जो सबको जोड़ता है, तो इस विचार पर भी विचार हो कि सनातन की डाल से जो बिछुड़ गये हैं उन्हें पुनः सनातन के मार्ग पर लाया जा सके।

अंत में कुंभ-महापर्व लोकतंत्र का जनक भी है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा कल्पवास करने कुंभ में आते थे, इस बहाने प्रजा का समुचित हाल-चाल, आर्थिकी, सामाजिक सौहार्द, स्वास्थ्य, ज्ञान-विज्ञान से वे परिचित होते थे। लगभग 600 ईसा पूर्व ह्वेनसांग ने राजाओं के कुंभ में आने का वर्णन अपने संस्मरणों में लिखा है, 644 से 664 ईसापूर्व राजा हर्षवर्धन के कुंभ में कल्पवास का ऐतिहासिक वृतांत प्राप्त होता है। इस प्रकार राजाओं का प्रजा के मध्य सामान्य रूप से रहना, तप करना, सत्संग करना, प्रजा का हाल-चाल जानकर हितवर्धन करना ही तो वास्तविक लोकतंत्र है। आशा है प्रयागराज कुंभ महापर्व में भारतीय लोकतंत्र पुनः सुदृढ़ता से स्थापित होगा।

महाकुंभ मेला 2025 शुभारंभ ।।

आज महाकुंभ की शुरुआत सोमवार को पौष पूर्णिमा स्नान के साथ हो गयी हैं। महाकुंभ मेला दुनिया के सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक समारोहों में से एक है। जो हर 12 साल में भारत के चार पवित्र स्थानों पर आयोजित किया जाता है- इलाहाबाद ( प्रयागराज ), हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। अपने आध्यात्मिक महत्व और विशाल पैमाने के लिए जाना जाने वाला कुंभ मेला दुनिया भर से लाखों भक्तों को आकर्षित करता है।
*महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। यह एक यात्रा है, जहाँ व्यक्ति जीवन के सत्य और आत्मा की पवित्रता की ओर बढ़ते हैं। कुंभ के दौरान योग, ध्यान और संतों के साथ समय बिताना, आत्म-निर्वासन और अद्वितीय अनुभव प्राप्त करना महाकुंभ के उत्सव का हिस्सा है।*

कुंभ मेला 2025।।

कुम्भ मेला भारत की सनातन संस्कृति का एक बहुत बड़ा महापर्व, अत्यन्त पवित्र धार्मिक आयोजन है जो करोड़ों श्रद्धालुओं को एक स्थान पर लाता है। हर बार इस मेले में शामिल होकर लोग अपने पापों से मुक्ति और आत्मशुद्धि की कामना करते हैं और इसमें लाखों नागा साधु, संन्यासी, तपस्वी और श्रद्धालु शामिल होते हैं। यह दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला है और दुनिया भर से लोग यहाँ आते हैं।

भारत में कुम्भ मेला चार प्रमुख स्थानों पर आयोजित होता है–इलाहाबाद (प्रयागराज), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक।
प्रयागराज (इलाहाबाद)–गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदियों के संगम पर आयोजित कुम्भ मेला दुनिया भर में प्रसिद्ध है।
हरिद्वार–गंगा नदी के तट पर होने वाला हरिद्वार कुम्भ मेला भी तीर्थयात्रियों के लिए प्रमुख आकर्षण है।

उज्जैन–यहाँ का कुम्भ मेला क्षिप्रा नदी के तट पर आयोजित होता है और उज्जैन को महाकाल की नगरी भी कहा जाता है उज्जैन में 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
नासिक–गोदावरी नदी के तट पर होने वाला नासिक कुम्भ मेला प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। नासिक में त्र्यंबकेश्वर मन्दिर एक धार्मिक केन्द्र है, जो बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।

प्रत्येक स्थान पर हर बारह वर्षों में कुम्भ मेला आयोजित होता है, जिसमें अलग-अलग वर्षों में भी अलग-अलग स्थानों पर आयोजन होते हैं।

*कुम्भ मेला का महत्व और इतिहास*

कुम्भ मेले का धार्मिक और पौराणिक महत्व है। हिन्दू मान्यता के अनुसार, समुद्र मन्थन के समय अमृत की कुछ बूँदें इन चार स्थानों पर गिरी थीं, जिसके परिणाम स्वरूप यहाँ पर हर बारह साल में कुम्भ मेले का आयोजन होता है। यहाँ आकर स्नान करने से आत्मशुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यह अत्यन्त दुर्लभ अवसर होता है और इसे सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन माना जाता है। यहाँ श्रद्धालु विशाल संख्या में एकत्र होकर अपने जीवन को पवित्र करने का प्रयास करते हैं।

कुम्भ मेला नागा साधुओं के लिए प्रसिद्ध है। यह साधु परम्परागत रूप से नग्न अवस्था में रहते हैं और भगवान शिव के भक्त माने जाते हैं। कुम्भ मेले में नागा साधु विशेष रूप से आकर्षण का केन्द्र होते हैं। इनकी पूजा-अर्चना, अखाड़ों में परम्परागत युद्ध कला प्रदर्शन, और उनके दर्शन मेले में आने वाले लोगों के लिए धार्मिक अनुभव को और भी विशेष बनाते हैं।

*कुम्भ मेला का आयोजन: परंपराएँ और अनुष्ठान*

कुम्भ मेले में मुख्य अनुष्ठान ‘शाही स्नान’ है, जो विभिन्न अखाड़ों द्वारा किया जाता है। इसमें सन्त और साधु मिलकर स्नान करते हैं, और उनके बाद ही आम श्रद्धालुओं को स्नान की अनुमति मिलती है। शाही स्नान के दिन को पवित्र माना जाता है और ऐसा माना जाता है कि इस दिन स्नान करने से सभी पापों का नाश होता है। इसके अलावा, प्रवचन, कीर्तन, और धार्मिक प्रवास भी मेले का हिस्सा होते हैं।

*कुम्भ मेलों के प्रकार*

कुम्भ मेले को चार नाम से जाना जाता है जो इस प्रकार हैं–महा-कुम्भ, पूर्ण-कुम्भ, अर्ध-कुम्भ और माघ-कुम्भ

महा-कुम्भ मेला–यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। यह प्रत्येक 144 साल में आता है। जिसे महा-कुम्भ कहा जाता है।
पूर्ण-कुम्भ मेला–यह हर 12 साल में आता है, मुख्य रूप से भारत में 4 कुम्भ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है।

अर्ध-कुम्भ मेला–इसका अर्थ है आधा कुम्भ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज में।

माघ-कुम्भ मेला–इसे मिनी कुम्भ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है यह हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है।

*कैसे निर्धारित की जाती है कुम्भ के आयोजन की तिथि*

किस स्थान पर कुम्भ मेले का आयोजन किया जाएगा यह राशियों पर निर्भर करता है कुम्भ मेले में सूर्य और बृहस्पति का खास योगदान माना जाता है जब सूर्य एवं बृहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुम्भ मेले को मनाया जाता है और इसी आधार पर स्थान ओर तिथि निर्धारित की जाती है।

जब बृहस्पति बृषभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुम्भ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है।
जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुम्भ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुम्भ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है।

जब सूर्य और बृहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह कुम्भ मेला नासिक में मनाया जाता है।
जब बृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब कुम्भ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है और आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन मध्यप्रदेश में जो कुम्भ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुम्भ भी कहते हैं।

इस साल कुम्भ मेला आज 13 जनवरी 2025 से 26 फरवरी 2025 महाशिवरात्रि तक तक चलेगा।

*इस बार के प्रयागराज महाकुम्भ मेला 2025 में प्रमुख शाही स्नानों की तिथियाँ इस प्रकार हैं -*

13 जनवरी 2025: पौष पूर्णिमा
14 जनवरी 2025: मकर संक्रांति
29 जनवरी 2025: मौनी अमावस्या
3 फरवरी 2025: बसंत पंचमी
12 फरवरी 2025: माघी पूर्णिमा
26 फरवरी 2025: महाशिवरात्रि

 

। महाकुंभ ( प्रयागराज ) 2025 ।।

सूर्य की पहली किरण के साथ संगम तट गंगा मैया की जय और हर हर महादेव के उद्घोष से गूंज रहा है। भगवान सूर्य को जल देते श्रद्धालु भारत की प्राचीन परंपराओं का ह्रदय से पालन करते हुए पुण्यलाभ कमा रहे हैं।

संगम तट पर श्रद्धालुओं की विशाल संख्या भारत की उस प्राचीन परंपरा का साक्षी बन रही है जो सदियों से भारतीय संस्कृति की पहचान है और जिसे विश्व ने भी धरोहर के रूप में स्वीकार किया है।

सूर्यदेव की पहली किरणों से जगमगाता प्रयागराज का संगम तट आज विश्व के सामने भारतीय संस्कृति, आस्था, अध्यात्म और श्रद्धा का एक सजीव उदाहरण बन गया है।

संगम तट का दृश्य आज श्रद्धालुओं की आस्था और श्रद्धा से दैदीप्यमान हो रहा है।

 

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