प्रकाश भटनागर:
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने संघ के स्थापना दिवस विजया दशमी पर बेहद शालीन तरीके से योगी आदित्यनाथ की ‘बटोगे तो कटोगे’ वाली बात को नए सिरे से विस्तार दिया है। भागवत ने बांग्लादेश में चल रहे हालात पर चिंता जताते हुए हिंदू समाज से एकजुट होने की अपील की है। अगले साल संघ की स्थापना को सौ वर्ष पूरे हो जाएंगे। इस लंबी अवधि में इस संगठन ने अपने उद्देश्यों को लेकर नियमित रूप से लंबा संघर्ष किया है। कड़े संघर्षों से सफलता भी पाई है। भागवत के कार्यकाल में संघ ने सामाजिक समरसता का जो अभियान चलाया, उसके मूल में भी हिंदुओं के बीच एकजुटता को मजबूत करने वाली ध्वनि ही निहित है।
हिन्दुओं की सबसे बड़ी कमजोरी उनका जातियों में बंटा होना है। और सामाजिक समरसता का संघ का अर्थ यही है कि समाज के सभी वर्ग, जाति, धर्म के लोग एक साथ एक रस के समान हो जाएं। बिना किसी भेदभाव के मिलजुल कर रहे। जाहिर है, संघ की इस समरसता में भागवत ने मुस्लिमों को भी शामिल करने की कोशिश की है। भागवत लंबे समय से कहते आ रहे हंै कि इस देश में रहने वाले सभी धर्माें के लोगों का डीएनए एक ही है। अब उन्होंने ‘बटोगे तो कटोगे’ अगर कहा है तो इसका मतलब विशुद्ध हिन्दू एकता से लिया जाना चाहिए। संघ इस बात पर संतोष कर सकता है कि अपने सौ साल के लंबे कार्यकाल में आखिरी के दस साल उसके लिए परिणाम देने वाले रहे। 2014 में भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से देश की राजनीति में संघ ने एक नया इतिहास रचा है। अलग जाति और मतों में बंटे हुए बहुसंख्यकों के दम पर केन्द्र की सत्ता पर भाजपा को अपने अकेले दम बहुमत में लाने का। वह भी एक बार नहीं, लगातार दो बार। तीसरी बार हिन्दुओं के बंटवारे से थोड़ा कम ही सही पर उसकी सत्ता केन्द्र में बरकरार है। और देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल भी भाजपा ही है।
लेकिन बटोगे तो कटोगे वाले तीखेपन और एकजुटता की अपील वाली मीठी नसीहत देने भर से कुछ नहीं होगा। खासतौर से तब, जबकि बहुसंख्यक हिंदू समाज को विभाजित करने की कोशिशें बड़ी साजिश का रूप ले चुकी हैं। उनके घातक असर को साफ देखा जा सकता है। सोशल मीडिया पर फर्जी हिंदू नाम से अकाउंट बनाकर जो लोग हिंदू देवी-देवताओं सहित हिन्दुओं की विभिन्न जाति वर्ग की निंदा/उपहास करते हैं, वे ऐसे ही असंगठित गिरोह के परिचायक हैं, जो पहले से जातियों में विभक्त हिंदू समाज के भीतर जहरीली कटुता का विस्तार करने के षड़यंत्र पर काम कर रहा है। यह सब पेशेवराना अंदाज में किया जाता है कि कई हिंदू भी खुद के ही धर्म को लांछित करने में खुद के फैशनेबल होने का अनुभव करने लगते हैं।
ऐसे में हालात और भी जटिल हैं। उनके चलते संघ की चुनौती और भी दुरूह हो जाती है कि वह हिंदुओं को किस तरह एकजुट कर सकेगा? क्योंकि हिंदू समाज तो प्याज के छिलकों की तरह अलग-अलग जाति और वर्ग की शक्ल में खुल-खुलकर बिखरता जा रहा है। इतनी गहरी खाई है कि अगड़े, पिछड़े और निचले के बीच आर्य और अनार्य वाला विद्वेष पनपा दिया गया है। हद तो यह कि हर जाति में भी अब गोत्र के हिसाब से खुद को एक-दूसरे से अलग बताने की होड़ चरम पर है। राजपूत, वैश्य, ब्राह्म्ण, और अनुसूचित जाति और जनजातियों में भी आपस में ऊंच नीच की खोज तेजी से हो रही है। राजस्थान के हालिया एक खूनी संघर्ष के लिए न्यूज एजेंसी जब लिखती है कि संबंधित गांव में दलित और हरिजनों के बीच तनाव के चलते पुलिस अलर्ट पर है, तो समझा जा सकता है कि जातीय आधार पर पिछड़े माने जाने वाले भी कैसे हिंदू समाज की व्यापक परिधि को तोड़कर खुद के लिए अपनी-अपनी जाति के संकीर्ण खांचे तैयार कर चुके हैं। जब हिंदुओं के भीतर ही आज भी छूआछूत और ‘मेरी जाति ही महान’ वाला भाव पनप रहा हो तो फिर इन असंख्य सिरों को एक साथ पकड़कर किसी एक सूत्र में बांधना नई सृष्टि के निर्माण जितना जटिल मामला ही नजर आता है।
सबसे कठिन काम है हिन्दुओं में अनुसूचित जाति और जनजातियों को अपने से मजबूती से जोड़ने का। समाज के इन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े तबके को ही हिन्दुओं की एकता को तोड़ने की कमजोर कड़ी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके अपने एतिहासिक कारण हंै। आज अगर समाज में कुछ बदलाव दिखता है तो जाहिर है उसके पीछे अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संविधान में दिया गया तैंतीस फीसदी आरक्षण और कई कड़े कानून एक बड़ा कारण है। अपनी युवा अवस्था में मैं भी आरक्षण का विरोधी था। तब पिछड़े वर्ग का आरक्षण नहीं था। पिछड़े वर्ग की जातियों को कभी समाज में नीची जात का दर्जा नहीं दिया गया। ये सिर्फ शैक्षणिक पिछड़ेपन के शिकार थे।
1984 के आरक्षण विरोधी आंदोलन में मैंने भी खुलकर हिस्सेदारी की थी। तब मैं संघ के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद से जुड़ा ही था। संघ अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण का समर्थक था। विद्यार्थी परिषद के एक तीन दिनी अधिवेशन में मुझे यह बात समझ में आई कि आरक्षण क्यों जरूरी है। शिविर के चर्चा सत्रों में जब हम आरक्षण का विरोध करते थे तो परिषद के प्रांतीय संगठन मंत्री शालिगराम तोमर हमें समझाते थे कि छुआछूत के कितने भयावह सामाजिक परिणाम होते हंै। या जनजातियों के लोग वनों में कितना दुरूह जीवन जी रहे होते हंै। तब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एक ही राज्य था। वे ढेर सारे मार्मिक उदाहरण देकर बताते थे कि छुआछूत के कारण अनुसूचित जातियों को कैसा अमानवीय व्यवहार सहन करना पड़ता है। जाहिर है यह हिन्दुओं की ऊंची जातियों के पाप का परिणाम थे। पिछड़े वर्ग का आरक्षण तो विशुद्ध राजनीतिक भागीदारी की अंर्तकथा है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए शहरों में तो वातावरण बदला है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसके दुष्परिणाम सामने आते रहते हंै। जाहिर है हिन्दुओं की आबादी में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की तादाद कथित ऊंची जातियों से ज्यादा है। इसलिए अगर संघ को हिन्दू एकता की वास्तविक चिंता करनी है तो इन उपेक्षित जातियों को हिन्दुओं में भी सम्मान जनक दर्जा दिलाना होगा। जाहिर है इसका रास्ता शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक तरक्की से ही खुलता है।
ऐसे में संघ के लिए इस दिशा में देश या समाज की बजाय मानसिकता के स्तर पर काम करने की सबसे बड़ी जरूरत दिखती है। तो ये मानसिकता कैसे बदलेगी? संघ जो कर सकता है, वह कर ही रहा है, लेकिन उनका क्या, जो समाज के बहुत बड़े तबके को प्रभावित करते हैं और वह खुद ही समाज को तोड़ने में कभी पीछे नहीं रहते? इसमें राजनीतिक दलों और मीडिया की बराबर की हिस्सेदारी है। राजनीतिक तौर पर देखें तो हिन्दुओं की एकता भाजपा को ताकत देती है और हिन्दुओं का विखंडन विपक्षी दलों को ताकत देता है। लोकतांत्रिक देश में राजनीति की यह प्रक्रियाएं कभी खत्म होने से रहीं। ऐसे में हिंदू समाज के विघटन की प्रक्रिया को रोकने के लिए संघ को और खुद हिन्दुओं को ढेर सारे रास्ते खोजने होंगे। बटने पर कटने वाली बात किसी भी समाज पर लागू होती है। बांग्लादेश में जो हुआ, उसने फिलहाल हिंदू समाज के लिए इस चेतावनी को गंभीर स्वरूप प्रदान कर दिया है। इससे जुड़ी भागवत की चिंता भी वाजिब दिखती है। लेकिन जो चुनौतियां सामने हैं, उनको देखकर यही लगता है कि मोहन की इस ‘हिंदू एकता भागवत’ में बेहद कठिन परिश्रम वाले कुछ नए अध्याय जोड़ने की सख्त आवश्यकता है।