#मनोज_जोशी:
भारत में किसी भी महान व्यक्ति के कद को छोटा करना है तो सबसे अच्छा तरीका है उसे संप्रदाय, जाति और क्षेत्र की सीमा में बांध दो। ताकि केवल कुछ ही लोग उसकी स्तुति करें और लोगों में अपने राष्ट्र, संस्कृति, इतिहास के प्रति गौरव का भान नहीं हो।
भारत में जन्म आधारित जातिप्रथा की यह बुराई कब और किन परिस्थितियों में शुरू हुई , यह एक अलग विषय हो सकता है, लेकिन इसने बहुत नुकसान किया और आज भी कर रही है। हमने देवताओं से लेकर लोक कल्याणकारी शासन का उदाहरण देने वाले राजाओं और स्वतंत्रता सेनानियों को भी जाति बिरादरी में बांट लिया है।
अक्षय तृतीया परशुराम जयंती पर मन में यह प्रश्न दिन भर कौंधता रहा कि क्या भगवान विष्णु के अवतार को भी जाति में बांटा जा सकता है? भगवान विष्णु तो सारे जगत के हैं, उनकी जाति कैसे होगी? यदि वे धरती पर जन्म लेंगे तो किसी कुल में ही लेंगे।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी के रूप में रघुवंश में भगवान विष्णु ने जन्म लिया तो क्या भगवान राम केवल क्षत्रिय या रघुवंशी समाज के हो गए, जबकि रामचंद्र जी का पूरा जीवन संपूर्ण समाज में समरसता और शांति स्थापित करने में बीता और उन्होंने पुरुषों में ऐसी उत्तम मर्यादा का उदाहरण प्रस्तुत किया जो संपूर्ण जगत के लिए अनुकरणीय है।
भगवान विष्णु ने योगीराज श्रीकृष्ण के रूप में यदुवंश में जन्म लिया। लेकिन उनका पूरा जीवन तो धर्म (रिलीजन नहीं) की स्थापना में बीता। उन्होंने जिस अर्जुन को महाभारत में युद्ध के दौरान गीता सुनाई वह अर्जुन तो यदुवंशी नहीं थे और न ही भगवद्गीता केवल यदुवंशी समाज के लिए है। क्या चंद्रगुप्त मौर्य, विक्रमादित्य, सम्राट अशोक, शिवाजी आदि किसी जाति में बांधे जा सकते हैं ? क्या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, गोपालकृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, तात्या टोपे, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस, महारानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, हेमू कालाणी आदि ने केवल अपनी जाति बिरादरी को ध्यान में रखकर अपनी भूमिका तय की ? क्या यह किसी एक हो सकते हैं। ?
इसी तरह भगवान विष्णु के एक और अवतार भगवान परशुराम जी को केवल ब्राह्मण जाति से जोड़कर कैसे देखा जा सकता है? ऐसा करने वाले लोग उस हिंदु संस्कृति के दुश्मन है जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी सनातन है। यह लोग धर्म के दुश्मन हैं।
जिन भगवान परशुराम को क्षत्रिय विरोधी बताया जाता है उनका गाधि राजवंश से सम्बंध था , क्योंकि उनकी दादी महाराज गाधि की पुत्री थी। इस हिसाब से भगवान विश्वामित्र के साथ भी उनका रक्त संबंध था। उनकी माता भी राजकन्या थी। यानी भगवान परशुराम का क्षत्रियों के साथ रक्त सम्बंध था ।
उन्होंने जिन क्षत्रिय राजाओं का नाश किया गया, वे दुष्ट और रावण की तरह अत्याचारी “सहस्त्रबाहु अर्जुन” के सहयोगी थे। “सहस्त्रबाहु अर्जुन” का शासन “माहिष्मती राज्य” पर था जो वर्तमान में “गोदावरी नदी” के आसपास का क्षेत्र था। उसके अत्याचारों की कथा इतनी लंबी है कि पूरी किताब लिखी जा सके।
उसके पुत्रों ने माता रेणुका के सामने उनके पति जमदग्नि की हत्या कर दी। इसी कारण माता रेणुका ने 21 बार अपनी छाती पीटकर विलाप किया था।
तब भगवान परशुराम ने यह शपथ ली थी कि मैं इक्कीस बार ऐसे आतताई राजाओं के रक्त के इस धरा को सींच दूंगा और उनके रक्त से ही अपने पिता को तर्पण दूंगा। इसके बाद उन्होंने उन्ही अधर्मी राजाओं का विनाश किया था जिस प्रकार भगवान श्रीराम ने आतताई रावण का वध किया भगवान परशुराम के इस धर्मयुद्ध में अनेक जनजातियों ने भी उनका साथ दिया था, जो इन अत्याचारी राजाओं के द्वारा पीड़ित थीं। यही वजह है कि छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों के विभिन्न जनजातीय समुदाय आज भी परशुरामजी को अपना आराध्य मानते हैं ।
मुंडा और संथाल जनजातियों में भगवान परशुराम की आराधना का खास महत्व है। इन जाति के लोग भैरवी और दामोदर नदी के संगम में “रज्जपा” पास कई पर्व मनाते हैं और यही पर वे अपने पूर्वजों का तर्पण करते भी हैं, यह नदी उनके लिए उसी प्रकार पवित्र हैं जैसे गंगा नदी।
यहीं पर भगवान परशुराम ने सहस्त्रबाहु व अन्य राजाओं का वध करके अपने पिता का तर्पण किया था। इसी के साथ रज्जपा में ही माता रेणुका का एक मंदिर हैं जहाँ उनकी सिर विहीन प्रतिमा हैं तथा उनके पैरों के नीचे कामदेव व रति हैं।
भगवान परशुराम के अनुयायी “रेणुका पंथ” को मानते हैं जिसमें माता रेणुका की आराधना शक्ति की देवी के रूप में होती हैं।माता रेणुका के कई मंदिर हैं जिसमें “माहुर का मंदिर” सबसे प्रसिद्ध हैं जहाँ माता रेणुका की प्रतिमा हैं।
इसके अलावा भगवान परशुराम को तंत्रसाधना का भी प्रवर्तक माना जाता है जो उन्होंने भगवान महादेव से प्राप्त की थी।
उनके द्वारा एक “कल्पसूत्र” ग्रन्थ की रचना की गई जिसमें तंत्र साधना और माता रेणुका की आराधना का महत्व बताया गया है।
इसके अलावा भगवान परशुराम दक्षिण भारत में सभ्यता के संस्थापक भी हैं। परशुराम गोकर्ण और कन्याकुमारी के बीच महादेव के 108 मंदिरों की स्थापना की ये मन्दिर आज भी मौजूद हैं।
भगवान परशुराम ने केरल की पूरी भूमि समुद्र से मांगी थी। इसके लिए उन्होंने अपना फरसा दान दे दिया था। इस जमीन को उन्होंने 64 गांवों में विभक्त किया था। इनमें से 32 गांव आज के पेरुमपूझा और गोकरणम के बीच मौजूद हैं। शेष 32 गांव पेरुमपूझा और कन्याकुमारी के बीच हैं। परशुराम ने इन गांवों को उन गुरुकुलों और शिक्षकों को दान कर दिया था जिन पर सहस्त्रबाहु अर्जुन ने अत्याचार किए थे।
भगवान परशुराम के ज्ञान व शौर्य के प्रमाण भारत ही नही ग्रीक, रोमन व ईरान की प्राचीन सभ्यता में भी मिलते हैं।
परशुराम के विभिन्न नामों में एक नाम भृगुराम भी है। यह शब्द आगे अपभ्रंश होकर “बगराम” बना। अफगानिस्तान में भी “बगराम” नामक स्थान है यहां विमानतल भी बना है। एक बगराम नगर ईराक में भी है। इस पर आगे शोध किया जाना चाहिए।
लिखने को बहुत कुछ है, लेकिन कृपा करके आराध्य और महान व्यक्तियों को जातियों में मत बांटो और खुद भी मत बंटो। यदि हम बंटे तो न जाने कितने बंटवारे होंगे।