रेलवे में पैंतीस हजार पदों पर भर्ती के लिए सवा करोड़ युवा जूझ रहे हैं। पूरी भर्ती सवालों के घेरे में है। दूसरे चरण की परीक्षाएं रोक दी गई हैं। नाराज युवक बिहार के कई शहरों में हिंसक विरोध पर उतर आए। आगजनी, पथराव, लाठीचार्ज, एफआईआर.. सब कुछ हो गया। जिन युवाओं को नौकरी देनी थी, उन्हें डंडे मारे जा रहे हैं। और फिर उस पर भी राजनीति शुरू हो गई है।
रोजगार को लेकर पूरा देश जूझ रहा है। करोड़ों युवा बेरोजगार घूम रहे हैं, और करोड़ों कोरोना काल में बेरोजगार हो गए हैं। लेकिन हमारे देश की राजनीति पांच राज्यों के चुनावों में सिमट कर रह गई है। यही नहीं, जिस मुद्दे को लेकर युवा सडक़ों पर हैं, रेल रोक रहे हैं, डंडे खा रहे हैं, वही चुनावी मुद्दा नहीं है। चुनाव में मुद्दा तो धार्मिक, सांप्रदायिक और जातिगत है। मुद्दा है तो यह है कि कौन हिंदुओं का ठेकेदार है, कौन किसी और का। मुद्दा है तो यह है कि कौन सी जाति किस दल के साथ है। किसकी जेब में कौन सी जातियां पड़ी हुई हैं।
सही भी है। जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं, तब हम केवल बोलने की स्वतंत्रता तक सिमट कर रह जाते हैं, फिर लाठियां खाते हैं और देशद्रोही तक कहलाने लगते हैं। लेकिन हम राजनीतिक दलों को रोजगार, महंगाई, बेहतर शिक्षा, सस्ते इलाज को ओर मोडऩे में असफल ही रहते हैं। इसके पीछे है, वोट के बदले मिलने वाले लालच। चंद रुपए, कंबल, दारू-मटन, चिकन, साइकिल, स्कूटी, लैपटाप, साडिय़ों में बिकने वाला मतदाता यदि ठगा नहीं जाएगा तो उसका क्या होगा?
अभी पांच राज्यों में चुनावों की प्रक्रिया चल रही है, जिसको देखते हुए राजनीतिक दलों की तरफ से मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए जा रहे हैं। जनता को लुभाने के लिए राजनीतिक दल स्कूटर, लैपटॉप, स्मार्टफोन, बिजली और पानी के बिल में कटौती और नकद देने की पेशकश कर रहे हैं। और हमारा चुनाव आयोग ऐसे प्रलोभनों को रोकने में स्वयं को असमर्थ पा रहा है। आयोग तो जैसे सरकार की जेब में ही चला गया है।
बचता है सुप्रीम कोर्ट, तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा है, उसने केंद्र और निर्वाचन आयोग से इस पर जवाब मांगा है। सुनवाई के दौरान यह बात सामने आई कि आखिर राजनीतिक दल मतदाताओं से जो लंबे-चौड़े वादे करते हैं, वह उन्हें कैसे पूरा करेंगे और इसके लिए उनके पास संसाधन कहां से आएंगे? सही बात तो यह है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में अब भी कई खामियां हैं, जिसका फायदा उठाने में राजनीतिक दल और राजनेता सफल होते रहे हैं। और ये शायद जानबूझकर छोड़ी गई हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने हमारी कानूनी व्यवस्था को उदारवादी रूप दिया था, ताकि गरीबों और वंचितों का उत्पीडऩ न हो। परंतु इसका दुरुपयोग ही किया जाता है। व्यवस्था की एक बड़ी खामी यह भी है कि आज भी बड़ी संख्या में गंभीर आरोपों में आरोपित भी संसद और विधानसभाओं में पहुंच जाते हैं। इसमें चुनाव में दिया जाने वाला प्रलोभन उनकी राह आसान कर देता है।
चुनाव सुधार की दिशा में काम जरूर हुआ है, परंतु यह पर्याप्त नहीं है। अब भी इसमें सुधार की बहुत जरूरत है, ताकि एक स्वस्थ व्यवस्था बन सके और मतदाताओं को कुछ भी प्रलोभन देने से राजनीतिक दल बचें और अपराधी तत्व संसद और विधानसभा में न पहुंच सकें। इसके लिए राजनीतिक दलों को भी खुद से पहल करनी चाहिए। एक स्वस्थ लोकतंत्र में कानून सबके लिए समान होना चाहिए। प्रलोभन और दबाव के दम पर चुनाव जीतने वाले नेता बाद में गलत कार्यों के जरिये इसकी भरपाई भी करते हैं और गैरकानूनी तरीके से धन एकत्र करते हैं।
आर्थिक प्रलोभनों के साथ ही राजनीतिक दल सांप्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के आधार पर लोगों को बांट कर वोट हासिल करने की कोशिश करते हैं।
यह किसी से छिपा नहीं है कि शक्तिशाली राजनेताओं के साथ-साथ बाहुबलियों को भी कानून की पकड़ से बचाने के लिए देश की न्याय व्यवस्था का किस तरह से दुरुपयोग किया जाता है। यह वाकई दुखद है कि जो धन देश के चौमुखी विकास पर खर्च होना चाहिए, वह मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रलोभन के रूप में खर्च हो रहा है।
राजनीतिक दलों से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर वे जो मुफ्त में स्कूटी, लैपटॉप, स्मार्टफोन से लेकर मुफ्त में बिजली देने का वादा कर रहे हैं, उसके लिए वह धन कहां से लाएंगे? सत्ता में आने के बाद सरकारी धन का ऐसे ही दुरुपयोग किया जाता है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में तो न जाने क्या-क्या मुफ्त दे रहे हैं, केवल वोट के लिए। यहां तीर्थयात्राएं मुफ्त कराई जा रही हैं, तो इसका भार भी सामान्य लोगों पर ही जाता है। लेकिन यह लोग समझने के लिए तैयार नहीं। थोड़े से प्रलोभन के लिए पूरा लोकतंत्र दांव पर लगा हुआ है और राजनेता इसका खुलकर दुरुपयोग कर रहे हैं। मतदाता न जाने कब जागेगा?
-संजय सक्सेना