कोरोना काल का अवसाद एवं वेदों का मनोविज्ञान…

 

 

कोरोना काल का अवसाद एवं वेदों का मनोविज्ञान…

हृदयनारायण दीक्षित:

कोरोना महामारी ने दुनिया भर में विषाद अवसाद का वातावरण बनाया है। लोगों में हताशा है। निराशा और आशंका है। मनोवैज्ञानिकों के परामर्श अवसाद से उबारने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। ऐसे में वेदों का मनोविज्ञान उपयोगी है। अथर्ववेद में इच्छाशक्ति कमजोर करने वाले मनोभावों की सूची है, “दुर्भाव इच्छाशक्ति को तोड़ता है। भयग्रस्तता व कायरता ऐसा ही भाव है। हीनभाव भी इस सूची में है। स्वयं को ही दोषी ठहराने वाला आत्म उत्पीड़क मनोभाव भी इच्छा शक्ति में बाधक है।” (16.1.2-5) मनोवैज्ञानिक के लिए यह विश्लेषण ध्यान देने योग्य है। मनोबल या इच्छाशक्ति पर भी अथर्ववेद के समाज में गहन विमर्श था। ऐसी भावनाओं को देव मानना या किसी अन्य देव से भी स्तुति करना वैदिक समाज विशेष की अभिव्यक्ति शैली है। मनन मनुष्य व्यक्तित्व में परिवर्तन लाता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य अपने चिंतन मनन द्वारा व्यक्तित्व बदल सकता है। उपनिषद् दर्शन में भी प्रगाढ़ भाव से मनन चिंतन करने के सकारात्मक परिणाम बताए गए हैं। मनुष्य सोचता है। सोचने से लक्ष्य बनता है। वह लक्ष्य का मनन करता है। चिंतन मनन उसे कर्म के लिए प्रेरित करते हैं। वह मन संकल्प लेता है। संकल्प मनःशक्ति को तीव्र करते हैं। मनुष्य जैसे कर्म करता है, वैसा ही होता जाता है। वैसे ही कर्म परिणाम भी पाता है। अथर्ववेद (3.8.5) में मन विचार व कर्म को एक ही धारा में सक्रिय करने पर जोर दिया गया है।

मन अप्रत्यक्ष है। दिखाई नहीं पड़ता। यह मनुष्य के व्यक्तित्व की अंतःशक्ति है। मन के अध्ययन, विवेचन व विश्लेषण पर विश्वव्यापी मनोविज्ञान विकसित हुआ है। भारतीय दर्शन में मनः शक्ति की जानकारी ऋग्वेद के रचनाकाल से ही मिलती है। ऋग्वेद में मन भी एक देवता हैं। ऋषि मन की गतिशीलता से आश्चर्यचकित थे। मन के लिए समय और भौगोलिक दूरी की कोई बाधा नहीं। पल में यहां, पल में वहां। स्वयं से दूर गया मन सांसारिक कार्यों में बाधक होता है। अध्ययन, विवेचन और निरीक्षण के कार्यों में भी चंचल मन बाधा है। ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं, “हम दिव्यलोक, भूलोक तक चले गए मन को वापस लाते हैं। समुद्र, अंतरिक्ष या सूर्य की ओर गए मन को भी हम यहीं लाते हैं। दूर दूरस्थ पर्वत, वन या अखिल विश्व विचरणशील मन और भूत या भविष्य में गए मन को हम वापस लाते हैं। (10.58.1-12) हम सब संसार में हैं। संसार का भाग हैं। जीवन के कार्य व्यापार संसार में ही होते हैं। संसार से विचलित मन एकाग्र नहीं होता। इस सूक्त के सभी मंत्रों के अंत में ठीक ही एक टेक बनी रहती है कि हे मन यहीं आओ, इसी संसार में आपका जीवन है।

मन हमारे व्यक्तित्व का सक्रिय हिस्सा है। यह संपूर्ण व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है। भारतीय चिंतन में मन के कार्य व्यापार पर बहुविधि विचार हुआ है। अथर्ववेद (13.3.19) में “मन को ऋत के तंतुओं को नापने वाला कहा गया है।” प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में प्रकृति बोध को समझने वाले ज्ञान तंतु होते हैं। इसे आधुनिक विज्ञान में तंत्रिका तंत्र कह सकते हैं। यही ऋत तंत्र है। मन इस तंत्र का परीक्षण करता है। परीक्षण का आधार प्राकृतिक संविधान या ऋत होता है। इसी परीक्षण के अनुसार बुद्धि निर्णय लेती है।

मन का अस्तित्व महत्वपूर्ण है। वह दर्शनीय न होकर भी प्रभावशाली है। मन हमारे व्यक्तित्व में संकल्प का केन्द्र है। मन का हमारे व्यक्तित्व में ही एकाग्र बने रहना बोधदाता है। मन की एकाग्रता वाली बुद्धि मनीषा-मन ईशा है। मन की एकाग्रता वाले विद्वान मनीषी कहे जाते हैं। ऋग्वेद के ऋषि ऐसे मन का आवाहन करते हैं “सतत् दक्ष कर्म के लिए, दीर्घकाल तक सूर्य दर्शन के लिए श्रेष्ठ मन का आवाहन करते हैं- आतु ए तु मनः कृत्वे दक्षाय जीव से, ज्योक च सूर्य दृशे। (10.57.4) मन कर्मठ जीवन का ऊर्जा केन्द्र है।

आधुनिक मनोविज्ञान में मन से जुड़े अनेक विषयों का अध्ययन होता है। इसमें प्रमुख विषय संवेदन- सेनसेशन व ध्यान- अटेंशन हैं। स्मरण व विस्मरण भी महत्वपूर्ण हैं। स्नायुतंत्र की गतिविधि अतिमहत्वपूर्ण है। प्रेरणा या मोटीवेशन भी मन का भाग हैं। चिंतन वस्तुतः मनन ही है। यह मन का ही कार्यव्यापार है। सफलता या विफलता मन की ही अनुभूतियां हैं। अनुमानों से निर्मित काल्पनिक अवधारणाएं या परसेपशन भी मनोविज्ञान के उपविषय हैं। मन अध्ययन सम्बंधी यह सारे विषय प्रत्यक्ष नहीं हैं लेकिन इनके प्रभाव से बने मानसिक रूप आकार प्रत्यक्ष अनुभव में आते हैं। मन के तल पर होने वाली गतिविधि सारी दुनिया के मनस्विदों की जिज्ञासा रही है। इसी में से मनोविकारों की भी पहचान हुई और उनके अध्ययन का काम भी विकसित हुआ। आधुनिक मनोविज्ञान में चिकित्सकीय सुझाव या काउंसिलिंग का उपचार नया व्यवसाय बना है। प्रेम में विफल या अवसादग्रस्त लोगों के लिए मनोरंजन मीडिया में लवगुरू टाइप लोगों के परामर्श चल रहे हैं।

अथर्ववेद में मनोविज्ञान के तमाम सूत्र हैं। मनोविज्ञान सम्बंधी एक मंत्र (6.41.1) में मन, चित्त, बुद्धि, मति, श्रुति और दृष्टि की कुशलता के लिए इन्द्र की स्तुति है, “मनसे, चेतसे धिय, आकूतय उत चित्तये/मत्यै श्रुताय चक्षसे- हम मन, चेतन, बुद्धि, मति, श्रुति व देखने समझने की शक्ति के संवर्द्धन के लिए इन्द्र को प्रसन्न करते हैं।” यहां सारे उल्लेख मन सम्बंधी हैं और आधुनिक मनोविज्ञान के उपविषयों के अनुषंगी हैं। मन की प्रसन्नता में ही वास्तविक प्रसन्नता के सूत्र हैं। आर्थिक समृद्धि ही पर्याप्त नहीं है। आर्थिक अभाव का नाम ही गरीबी नहीं है। गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में स्वैच्छिक गरीबी का उल्लेख किया है। स्वैच्छिक गरीबी अपने मन निश्चय का चयन है। स्वयं अपने मन से अपनाया गया कोई भी सार्थक चयन तमाम असुविधाओं के बावजूद आनंद देता है।

मन सर्जक भी है। यह अपने भीतर सुखद सृष्टि करता है और दुखमय सृष्टि भी। अथर्ववेद के कवि ऋषि इस मन प्रपंच से परिचित थे। कहते हैं “यह परम में विराजमान ज्ञान प्रकाशित मन इस सृष्टि का मूल कारण है। इसके द्वारा सृजित अशुभ का प्रभाव भी यही मन हमसे दूर करे। शान्ति प्रदान करें।” (वही 19.9.4) यहां ऋषिमन मन को सृष्टि का मूल कारण बताया है। यह ऋग्वेद की परंपरा है। मूल लक्ष्य मनोविश्लेषण है। मन की शक्ति का आकलन है। इच्छा मन की पुत्री है। वैदिक साहित्य में इच्छाशक्ति के लिए प्रायः आकूति एक देवी हैं। वे सौभाग्य की देवी हैं। स्तुति है कि वे प्रबल इच्छाशक्ति के रूप में हमें प्राप्त हो। हमारे अनुकूल हों। इच्छापूर्ण हो। हमारे मन संकल्प पूर्ण हो।” (19.4.2-3) आधुनिक मनोविज्ञान में अथर्ववेद की की आकूर्ति – इच्छाशक्ति ही ‘विल पावर’ हैं।

अथर्ववेद का मनविश्लेषण केवल अध्ययन योग्य मनोविज्ञान ही नहीं है। इस विवेचन का सामाजिक उद्देश्य है। यहां समाज को मन चंचलता के विकार से बचाने वाली जानकारियां व स्तुतियां हैं। इस विश्लेषण के तमाम तत्व सीधे ऋग्वेद की परंपरा हैं। अथर्ववेद के विचार और मनन संकल्प सदाचरण में उपयोगी हैं। आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा मनोरोगी का उपचार संभव है लेकिन वैदिक संहिताओं में संपूर्ण समाज को प्रसन्न मन बनाने के उपाय हैं। अथर्ववेद की यही पंरपरा चरक व पतंजलि तक विस्तृत है। मन ठीक तो सुख। मन खराब तो दुख। सुख और दुख मन के ही रचे गढ़े उत्पाद हैं।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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