अरुण दीक्षित,
चुनावी साल है!इसलिए अपने एमपी में रेवड़ियां बांटने का दौर चल रहा है।इसी क्रम में सरकारी कर्मचारियों को भी तोहफा देने की तैयारी हो रही है।सूत्रों की माने तो यह प्रस्ताव तैयार हो गया है कि सरकारी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र 62 से बढ़ा कर 63 साल कर दी जाए!माना जा रहा है कि जल्दी ही कैबिनेट के समक्ष यह प्रस्ताव लाया जाएगा।अगर प्रस्ताव पारित हो गया तो प्रदेश के करीब डेढ़ लाख सरकारी कर्मचारियों को फायदा होगा।
लेकिन सच तो यह है कि ऐसा करने के पीछे सरकार का मूल उद्देश्य फिलहाल खुद को एक बड़ी समस्या से बचाना है।इस पर बात करने से पहले यह जान लेते हैं कि अब तक प्रदेश में कितनी बार सरकारी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाई गई है।
जानकारी के मुताबिक जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ था तब सरकारी कर्मचारी 55 साल की उम्र में सेवानिवृत्त हो जाते थे।बाद में यह सीमा बढ़ाकर 58 साल की गई।1998 तक सरकारी कर्मचारी 58 साल की उम्र में नौकरी से बाहर हो जाते थे।तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय ने कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र 60 साल कर दी थी।
1998 से 2018 तक सरकारी कर्मचारी 60 की उम्र तक नौकरी करते थे।2018 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ा कर 62 साल कर दी थी।अब 5 साल बाद एक बार फिर वही दांव चलने की तैयारी की जा रही है।
2018 में जब कर्मचारियों की उम्र की सीमा बढ़ाई गई थी तब उस फैसले को चुनावी दांव माना गया था।कहा गया था कि इसका फायदा विधानसभा चुनाव में मिलेगा।लेकिन ऐसा हुआ नही था।बीजेपी चुनाव हार गई।
जानकार कहते हैं कि 2018 में भी सरकार ने खुद के हित के लिए कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाई थी।अब भी वह एक बड़े झंझट से खुद को बचाने के लिए यह कदम उठाना चाहती है।उसे न तब कर्मचारियों से प्यार था और न अब है।
तो आइए जानते हैं सरकार की इस दरियादिली की असली वजह!एमपी में दलित एजेंडा लागू करने वाली दिग्विजय सरकार ने 2002 में नए पदोन्नति नियम बनाए थे।इनके तहत आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण दिया जाना था। 2003 से 2016 तक आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों और अधिकारियों को प्रमोशन दिया भी गया। 2016 में जबलपुर हाईकोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण को असंवैधानिक करार देते हुए हुए 2002 में बने नियम निरस्त कर दिए।साथ ही यह आदेश भी दिया कि इस अवधि में जिन लोगों को प्रमोशन दिया गया है उन्हें डिमोट किया जाए।
इस फैसले से सरकार में हड़कंप मच गया।सरकार ने तत्काल सुप्रीम में अपील की।सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।तबसे यह मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है।तभी से राज्य में सरकारी कर्मचारियों के हर वर्ग के प्रमोशन रुके हुए हैं।7 साल होने को आए हैं।
मामला अटका हुआ है।सरकारी कर्मचारी बिना प्रमोशन के सेवानिवृत्त हो रहे हैं।
इस बीच सामान्य वर्ग के कुछ पशु चिकित्सकों ने 2020 में हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच में एक याचिका दायर की।उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने केवल आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों के प्रमोशन पर रोक लगाई है।जबकि सामान्य वर्ग के प्रमोशन पर कोई रोक नहीं है।इसलिए कोर्ट सरकार को निर्देशित करे कि वह उनकी डीपीसी कराए।हाईकोर्ट ने इस संबंध में सरकार को डीपीसी करने का निर्देश दिया।
इस निर्देश पर सरकार लगातार टालमटोल करती रही।किसी न किसी बहाने से मामले को आगे बढ़ाती रही।इस बीच याचिका लगाने वाले दो वेटनरी अधिकारी रिटायर भी हो गए।
परेशान वेटनरी अधिकारियों ने अवमानना याचिका दायर की।इस याचिका पर हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच ने 8 फरबरी 2023 को अपना फैसला सुनाया है।इस फैसले में बहुत ही तल्ख भाषा में सरकार के रवैए पर टिप्पणी की गई है।कोर्ट ने सरकार की मंशा पर ही सवाल उठाया है।
सूत्रों की माने तो सरकारी कर्मचारियों की एक लाबी यह नही चाहती है कि सामान्य वर्ग के कर्मचारियों को समय पर प्रमोशन मिले।इसी वजह से वह सरकार पर दवाब बनाए हुए हैं।जिसके चलते सरकार कोई फैसला नहीं ले रही है।मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है ,यह कह कर लटकाए हुए है।
इसी वजह से सरकार सरकारी कर्मचारियों को एक साल की सेवावृद्धि देना चाहती है।ताकि अगले विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक मामले को टाला जा सके।
अब सुनिए एमपी के सरकारी कर्मचारियों का हाल!इस राज्य के कर्मचारी तीन वर्गों में बंटे हुए हैं।अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों ने अपना संगठन बना रखा है। अजाक्स नाम के इस संगठन को राज्य सरकार ने मान्यता दे रखी है।पिछड़े वर्ग के कर्मचारियों का भी संगठन है।उसका नाम अपाक्स है।इन दोनों के बाद सवर्ण कर्मचारियों ने भी अपना संगठन बनाया।उसका नाम सपाक्स है। सपाक्स ने राजनीतिक दल भी बना लिया है।तीनों ही संगठनों की कमान वरिष्ठ अफसर संभाले हुए हैं।साफ शब्दों में कहें तो सरकारी कर्मचारी जातीय आधार पर बंटे हुए हैं।
यहां इस बात का भी जिक्र जरूरी है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2018 के चुनाव के पहले अजाक्स के सम्मेलन में भाग लिया था।तब उन्होंने प्रमोशन में आरक्षण बनाए रखने का वायदा किया था।साथ ही यह भी कहा था कि कोई माई का लाल आरक्षण हटा नही सकता।
उसके बाद कर्मचारी साफ तौर पर विभाजित हो गए थे।उधर सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाए जाने की वजह से बेरोजगार युवाओं में भी गुस्सा फैल गया था।वह अपने आप दो साल पिछड़ गए थे।कहा जाता है कि उसी वजह से बीजेपी विधानसभा चुनाव हार गई थी।2018 में चुनाव हारे एक वरिष्ठ बीजेपी नेता आज भी कहते हैं कि “माई के लालों “की वजह से ही वह चुनाव हारे थे।
बताते हैं कि हाई कोर्ट के 8 फरबरी के फैसले ने सरकार की नींद उड़ा दी है।उसके सामने एक तरफ कुंआ है तो दूसरी तरफ खाई है।अगर वह हाईकोर्ट के फैसले को मानते हुए सामान्य वर्ग के कर्मचारियों के प्रमोशन के लिए डीपीसी कराती है तो आरक्षित वर्ग के कर्मचारी नाखुश हो जाएंगे। फैसले को न मानने की वजह से सामान्य वर्ग तो नाराज चल ही रहा है।
एक संकट और है!2018 में जब सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाई गई थी तब बेरोजगार युवाओं की उम्मीदों पर कुठाराघात हुआ था।उन्होंने भी बीजेपी को हराने में अहम भूमिका निभाई थी।
अब फिर वही हालात बन रहे हैं।अगर सरकार ने 62 को 63 में बदला तो उसका दोहरा नुकसान होगा।युवाओं में गुस्सा और बढ़ेगा तथा बिना पदोन्नति सालों से काम कर रहे कर्मचारी भी नाराज होंगे।हालांकि कुछ सलाहकार यह भी समझा रहे हैं कि कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र 63 साल करके मुख्यमंत्री देश में पहले स्थान पर पहुंच जाएंगे।वैसे एमपी में सरकारी डाक्टर 65 साल तक नौकरी करते हैं।स्कूल शिक्षक पहले से ही 62 साल की उम्र में रिटायर हो रहे थे।
सरकार अभी असमंजस में है।लेकिन अधिकारियों का एक वर्ग उस पर दवाब बनाए हुए है।इसी वजह से 62 से 63 का फार्मूला लाया गया है।देखना यह है कि सरकार क्या करती है?
सरकार की नब्ज पर हाथ रखने वाले भी सांस रोक कर देख रहे हैं।उन्हें लग रहा है कि सरकार कुछ भी कर सकती है।लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मान रहा है कि “संघ” शक्ति सब पर भारी पड़ेगी!संघ को जमीनी हकीकत पता है।वह सरकार कोई ऐसा कदम नहीं उठाने देगा जो आत्मघाती साबित हो।
अब देखना यह है कि सरकार इस “फंदे” को कैसे काटती है?कुछ भी हो सकता है!आखिर अपना एमपी गज्जब जो है!है कि नहीं!