26 जनवरी 2025 को न्यायपालिका का लोकतान्त्रिक स्तम्भ ढह जायेगा!

साइंटिफिक-एनालिसिस:

 

महामहिम राष्ट्रपति श्रीमति द्रौपदी मूर्मू के समय रहते फैसला नहीं लिया गया तो आने वाली 26 जनवरी 2025 को गणतन्त्र दिवस के दिन राष्ट्रीय सलामी के साथ दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र भारत में न्यायपालिका वाला लोकतान्त्रिक स्तम्भ ढह जायेगा | आपको सर्विदित हैं कि 26 नवम्बर 2024 को एक संविधान एक देश होने के बावजूद दो संविधान दिवस बनाये गये | एक कार्यक्रम राष्ट्रपति के नेतृत्व में बनाया जबकि दुसरा मुख्य न्यायाधीश ने बनाया |

 

इसके लिए राष्ट्रपति महोदय द्वारा मुख्य न्यायाधीश को निमंत्रण न देकर त्रुटि हुई या मुख्य न्यायाधीश के निमंत्रण को ठुकराकर संवैधानिक शपथ की अवहेलना करी या मुख्य न्यायाधीश ने पूर्व की भात्ति राष्ट्रपति को निमंत्रण न देकर साजिश करी या मुख्य न्यायाधीश ने राष्ट्रपति के निमंत्रण को ठुकरा कर सुप्रिम कोर्ट में अलग से संविधान दिवस बनाकर राष्ट्रद्रोह करा | यह पुरा मामला राष्ट्रपति-सचिवालय ने महामहिम के संज्ञान में ला दिया हैं | इसमें गलती कहा हुई व दोषी को क्या सजा दी जाये उस पर राष्ट्रपति महोदय का फैसला आना बाकी हैं |

 

इसी फैसले के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश के संवैधानिक पद के साथ निचे की अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत के स्तर तक न्यायपालिका के लोकतान्त्रिक स्तम्भ का संविधान में क्या वजूद है और सर्वोच्च राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाने के अधिकार व संवैधानिक शक्तियों का स्पष्टीकरण होगा | यदि फैसला नहीं लिया गया और समय बर्बाद कर राष्ट्रीय ध्वज के गतिमान चक्र को रोका गया तो हमेशा की तरह 26 जनवरी के गणतन्त्र दिवस की राष्ट्रीय सलामी में मुख्य न्यायाधीश को निचे बैठाया जायेगा और उनसे शपथ लेकर संवैधानिक शक्तियां प्राप्त करने वाले राष्ट्रपति व उनसे शपथ लेने वाले उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष व प्रधानमंत्री मंच के ऊपर बैठेंगे | यह दुनिया की किसी भी सभ्यता व संस्कृति के आधार पर अनैतिक व अमर्यादित हैं।

 

राष्ट्रपति और उच्चतम न्यायालय की फुल संविधान पीठ को संविधान संरक्षक का दर्जा प्राप्त हैं | राष्ट्रपति जिन्हें शपथ दिलाती हैं उनके माध्यम से संसद-भवन में रखे मुल संविधान की सुरक्षा कर लेगी परन्तु उच्चतम न्यायालय तो संविधान की रक्षा करने का कर्तव्य नहीं निभा सकता | इससे महत्तवपूर्ण बात जब पदासीन न्यायाधीश अपने पूरे कार्यकाल में संसद नहीं जाते तो वे संविधान की रक्षा क्या करेंगे और संविधान में नये आदेशों व बदलाव को कैसे जोडेंगे | इसका सीधा तात्पर्य न्यायपालिका तकनीकी रूप से संविधान से कटी हुई हैं | राष्ट्रपति व मुख्य न्यायाधीश जो आपस में एक-दूसरे को संविधान की शपथ दिलाते हैं वो मूल संविधान होता हैं या उसकी जेरॉक्स कापी यह लोगों के लिए शुरू से जिज्ञासा का विषय रहा हैं | संविधान संसोधन के कागज मूल संविधान में रखकर शपथ दिलाई जाती हैं या नहीं | न्याय की देवी की मूर्ति बदलकर उसके हाथ में संविधान रख दिया परन्तु असली संविधान तो उच्चतम न्यायालय को दिया ही नहीं गया जिसे पढकर न्यायाधीश बिना भेदभाव के न्याय कर सके |

 

संविधान दिवस के माध्यम से राष्ट्रपति वर्ष में एक बार न्यायपालिका जाकर उसे लोकतन्त्र के महत्तवपूर्ण स्तम्भ का गौरव प्रदान कर रहे थे | अब यह हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा क्योंकि इस बार सुप्रिम कोर्ट के कार्यों की सालाना रिपोर्ट संविधान दिवस के दिन कार्यपालिका के प्रमुख प्रधानमंत्री के हाथों में सौपी | यह अपने आप में असंवैधानिक हैं क्योंकि कार्यपालिका जो तथाकथित सरकार हैं न कि पूर्ण रूप से असली भारत सरकार हैं उसके खिलाफ आये दिन उच्चतम न्यायालय में मामले दर्ज होते हैं उन पर सुनवाई व निष्पक्ष फैसले और उनके लागू होना दूर की कोटी हो जायेंगे | यहां न्याय पर सदैव एक नहीं पांचों अंगुलिया उठती रहेगी क्योंकि यह बंद आंखों से देखे तब भी प्राकृतिक न्याय की मर्यादा को भी भंग करती नजर आती हैं | सुना हैं अब तो न्याय की देवी की आंखों पर बंधी काली पट्टी हटा दी गई हैं | जब भारत के मुख्य न्यायाधीश संविधान दिवस के अपने कार्यक्रम में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष व प्रधानमंत्री को बुलाने का दम नहीं रखते वो उनके खिलाफ क्या फैसला दे पायेंगे | यह सच्चाई देखकर लोगों के मन में एक निराशा पैदा होने लगी हैं कि वकीलों को मुसिबत में हाडतोड मेहनत से कमाया पैसा फीस में देकर भी उसे न्याय नहीं मिलेगा और तारिख के नाम पर अन्याय करते हुए उसका सारा जमा धन लूट लिया जायेगा |

 

संविधान पीठ में होने वाली सुनवाई व उसके फैसले तार्किक रूप से किस कसौटी पर खरे माने जायेंगे जब तक वो सीधे राष्ट्रपति के पास व उनके माध्यम से दूसरों के पास नहीं जायेंगे | उच्चतम न्यायालय को उसका अलग ध्वज व चिह्न देकर पहले ही उसे राष्ट्रीयता से अलग कर दिया हैं | अब अगले वर्ष उच्चतम न्यायालय संविधान दिवस बनायेगा तो वो अपना झण्डा फहरायेगा यानि भारत का मुख्य न्यायाधीश साल में एक भी बार राष्ट्रीय तिरंगे और देश के लिए जान न्यौछावर करने वाले शहीदों को राष्ट्रीय सलामी व श्रृद्धांजली नहीं देगा | इससे मुख्य न्यायाधीश के संवैधानिक पद के आगे भारत लिखने का कौनसा तुक बनता हैं | चार शेरों के मुंह वाला राष्ट्रीय चिह्न का इस्तेमाल सुप्रिम कोर्ट कैसे करेगा जब उसको अलग चिह्न दे दिया गया हैं | इसका सीधा अर्थ उच्चतम न्यायालय के मुख्य गेट पर मौजूद राष्ट्रिय चिह्न व लिखे भारत-सरकार को देर-सवेर निकालना पडेगा | संविधान के अन्दर भारत-सरकार जिसे माना गया हैं उसका क्या अभिप्राय बचेगा |

 

सुप्रिम कोर्ट को नया चिह्न दे देने से राज्यों के हाईकोर्ट, जिला न्यायालय व तहसील स्तर की न्यायपालिका कौनसा चिह्न व तिरंगा इस्तेमाल करेगी यह अपने आप में बहुत भ्रामक व अंधेरी नगरी वाली स्थिति बनती हैं | जब ऊपर लेकर निचे तक पुरी न्यायपालिका बिना किसी एक झण्डें व प्रतिक के अभाव में टुकड़े-टुकड़े में बट जायेगी | यहां एक संवैधानिक स्तम्भ की कार्यप्रणाली का मामला हैं न कि किसी प्राइवेट कम्पनी के प्रबंधन का | पहले ही कई भूतपूर्व न्यायाधीश कार्यपालिका के निचे जाकर पूरे न्यायिक तन्त्र को कार्यपालिका वाले स्तम्भ के निचे लाने का असंवैधानिक कृत करके उसे क्षण भंगूर की स्थिति में ला चुके हैं |

 

भारतीय संविधान में हर संवैधानिक संस्था की चेक व बैलेन्स वाली स्थिति बनाई गई हैं | जब मुख्य न्यायाधीश के पास न्याय की देवी का प्रतिक चिह्न बदलने का एकाधिकार हैं तो इसके गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए चेक व बैलेन्स कहा रहेगा | जब न्यायपालिका का स्तम्भ ही बिखर जायेगा तो लोकतन्त्र दो स्तम्भों के सहारे कब तक टिक पायेगा | जब इन दो स्तम्भ मे एक स्तम्भ बार-बार दूसरे को ओवरलेप कर लेता हैं | जब बात चौथे स्तम्भ की आती हैं तो उसे संवैधानिक चेहरा व जवाबदेही वाले लोकतान्त्रिक अधिकार दे ही नहीं रखे हैं | 26 जनवरी को मुख्य न्यायाधीश के निचे या मंच पर बैठने से तय होगा की न्यायपालिका का स्तम्भ स्थिर हैं या ढह गया हैं।

 

शैलेन्द्र कुमार बिराणी

युवा वैज्ञानिक

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