कंपनी अधिनियम 2013 को संशोधनों के साथ लागू करने के पीछे मोदी सरकार का उद्देश्य साफ था कि कंपनियों की कार्यशैली में पारदर्शिता लाना और छोटे निवेशकों, शेयरधारकों और हितधारकों के प्रति जबाबदेही तय करना.
इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कंपनी कानून, 2013 के तहत प्रत्येक सूचीबद्ध कंपनी के कुल निदेशकों में से एक-तिहाई स्वतंत्र निदेशक होने चाहिए।
इन स्वतंत्र निदेशकों की योग्यता और क्षमता तय करने के लिए भारतीय कार्पोरेट संस्थान का गठन किया गया जो इच्छुक अनुभवी और पेशेवरों की परीक्षा लेंगे और परीक्षा पास करने वाले व्यक्तियों को स्वतंत्र निदेशकों की सूची में नामांकित करेंगे ताकि कंपनियां इस सूची से स्वतंत्र निदेशक नियुक्त कर सकें.
इस सूची में नामांकन के लिए हर योग्य निदेशक से सालाना 5000 रुपये भी लिए जाते हैं और संस्थान द्वारा समय समय पर सेमिनार, आदि कोर्सेज का भी आयोजन हजारों रुपये की फीस लेकर किया जाता है ताकि सूची में शामिल निदेशकों को कंपनी अधिनियम और कार्यशैली को ज्यादा ज्ञान प्राप्त हो और वे स्वतंत्र निदेशक के कार्य को पूरी निष्ठा और निष्पक्षता से निभा सकें. यही सरकार का भी उद्देश्य था और संस्थान का गठन भी इसी मापदंड के तहत किया गया था.
लेकिन यह विडम्बना नहीं है तो क्या है कि सरकार द्वारा निदेशकों की संस्थान की पूरी तरह उपेक्षा की गई है. स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति आज भी मनमाने ढंग से दोनों सरकारी और गैर सरकारी सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा किया जा रहा है जिसमें सिर्फ और सिर्फ ऐसे लोगों को स्वतंत्र निदेशक बनाया जा रहा है जो सरकार और प्रमोटरों की हां में हां मिला सकें और पारदर्शिता एवं निवेशकों के हित जाए तेल लेने.
हद तो तब हो रही है जब सरकार और सत्ताधारी दल द्वारा अपने से जुड़े पेशेवरों और कार्यकर्ताओं को स्वतंत्र निदेशक जैसे संवेदनशील पदों पर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की अनुशंसा से करोड़ों-अरबो कमाने वाली महारत्न कंपनियों में नियुक्त किया जा रहा है.
ऐसे निदेशक जो कभी छोटी से छोटी गैर सरकारी सूचीबद्ध कंपनी में निदेशक न बनें है और न ही उन्होंने कभी सूचीबद्ध कंपनियों में काम किया या आडिट किया और न ही उन्होंने कभी कंपनी व्यापार, अधिनियम एवं कानूनी ज्ञान संबंधित अपनी सक्षमता दिखाई है- ऐसे लोगों को महारत्न सरकारी कंपनियों में निदेशक बनाना भ्रष्टाचार से कम नहीं है और साथ ही भारतीय कार्पोरेट संस्थान का खुला अपमान है.
सत्ताधारी दल से जुड़े लोगों को सरकार मंत्री बनाए, पार्टी में महत्वपूर्ण पद दें, पार्टी के कार्यों में सम्मिलित करें, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती- लेकिन स्वतंत्र निदेशक जैसे पदों पर नियुक्त कर अनुभव, योग्यता और क्षमता का खुलेआम अपमान हो रहा है और वो भी संवैधानिक पदों की अनुशंसा पर.
सरकारी कंपनियों में नियुक्त ऐसे स्वतंत्र निदेशकों का कंपनी कार्यशैली और व्यापार से, आर्थिक स्थिति से, कंपनियों के आंतरिक मामलों एवं सिस्टम इंमप्रूवमेंट से कोई लेना देना नहीं होता. इन्हें सिर्फ नियुक्त किया जाता है कंपनियों के सीएसआर फंड का उपयोग अपने और पार्टी हितों के लिए उपयोग करना.
दो साल पहले केंद्र सरकार के इसी संस्थान इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स (आईआईसीए) ने साफ तौर पर कहा था, ‘सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिए स्वतंत्र निदेशकों (आईडी) का चयन स्वतंत्र नहीं रहा है. क्षेत्र के अनुभवी विशेषज्ञों के बजाय, पूर्व-आईएएस या राजनीतिक आत्मीयता को वरीयता दी जा रही है, इसलिए आईडी के पूरे विचार को दूषित कर दिया गया है.’
सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त डेटा और 146 केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के रिकॉर्ड की जांच से पता चलता है कि 98 सार्वजनिक उपक्रमों में 172 स्वतंत्र निदेशक हैं.
इन 172 स्वतंत्र निदेशकों में से 67 सार्वजनिक उपक्रमों में काम करने वाले कम से कम 86 स्वतंत्र निदेशक सत्ताधारी दल से जुड़े हुए हैं.
ये स्वतंत्र निदेशक पिछले तीन साल में 25 हजार करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार करने वाले महारत्नों में भी सेवारत हैं.
इसमें सिर्फ सत्ताधारी दल के विभिन्न मौजूदा और पूर्व पदाधिकारी ही नहीं बल्कि मौजूदा केंद्रीय मंत्री के परिवार के सदस्य और पूर्व मंत्री, पूर्व विधायक, पूर्व विधान परिषद सदस्य आदि शामिल हैं.
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि स्वतंत्र निदेशकों की स्वतंत्रता अब सरकार के हाथ में ही है जिसने खुद इस कानून को बनाया है. जिस तरह जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम की अनुशंसा पर होती है, उसी तरह सरकारी या गैर सरकारी कंपनियों में स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति भारतीय कार्पोरेट संस्थान की कोलेजियम द्वारा ही किया जाना चाहिए जिसमें सरकारी दखलंदाजी की कोई जगह नहीं होगी, तभी सही मायनों में स्वतंत्र निदेशक पद की गरिमा बढ़ेगी.
लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल