स्वतंत्र निदेशकों की स्वतंत्रता पर लगता प्रश्नचिन्ह!

 

 

दो साल पहले केंद्र सरकार के थिंक टैंक इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स (आईआईसीए) ने साफ तौर पर कहा था, ‘सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिए स्वतंत्र निदेशकों (आईडी) का चयन स्वतंत्र नहीं रहा है. क्षेत्र के अनुभवी विशेषज्ञों के बजाय, पूर्व-आईएएस या राजनीतिक आत्मीयता को वरीयता दी जा रही है, इसलिए आईडी के पूरे विचार को दूषित कर दिया गया है.’

सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्राप्त डेटा और 146 केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के रिकॉर्ड की जांच से पता चलता है कि 98 सार्वजनिक उपक्रमों में 172 स्वतंत्र निदेशक हैं.

इन 172 स्वतंत्र निदेशकों में से 67 सार्वजनिक उपक्रमों में काम करने वाले कम से कम 86 स्वतंत्र निदेशक सत्ताधारी भाजपा से जुड़े हुए हैं.

ये स्वतंत्र निदेशक पिछले तीन साल में 25 हजार करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार करने वाले महारत्नों में भी सेवारत हैं.

इसमें सिर्फ भाजपा के विभिन्न मौजूदा और पूर्व पदाधिकारी ही नहीं बल्कि मौजूदा केंद्रीय मंत्री के परिवार के सदस्य और पूर्व मंत्री, पूर्व विधायक, पूर्व विधान परिषद सदस्य आदि शामिल हैं.

स्वतंत्र निदेशक एक अनौपचारिक निदेशक होता है जो कम्पनी के रोजमर्रा के कार्य नहीं देखता, लेकिन कम्पनी की नीति निर्धारण, योजनाओं, हितधारकों और देश हित संबंधित मुद्दों पर बेबाकी से निर्णय लेता है और प्रबंधन के समक्ष अपने विचार रखता है. उसकी नजर हमेशा इस बात पर रहती है कि कम्पनी कोई भी गैर कानूनी और गैर जिम्मेदाराना कार्य में लिप्त न हों.

कंपनी कानून, 2013 के क्रियान्वयन में मोदी सरकार ने खुद यह निर्णय लिया था कि हर पब्लिक कंपनी के प्रबंधन में एक तिहाई स्वतंत्र निदेशक होना जरूरी है, जिनकी नियुक्ति उनकी योग्यता और अनुभव के आधार पर हो- जिससे कंपनी और व्यापारिक हित में सही फैसले किए जा सकें.

इसलिए स्वतंत्र निदेशकों की संस्था भी बनाई गई, जो परीक्षा लेकर स्वतंत्र निदेशकों का पैनल बनाती है और यह उम्मीद करती है कि कम्पनियां इसी पैनल में से स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति करेगी.

सेबी ने भी इसके लिए नियम बनाए और समयानुसार स्वतंत्रता के उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति और हटाने के लिए मंगलवार को नियम और कढ़े बनाए.

लेकिन जब तक सत्ताधारी दल की इच्छा शक्ति नहीं होगी, सेबी चाहे कितने भी नियम बना लें- सरकारी उपक्रमों और लिस्टेड कंपनियों में स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति राजनीतिक स्वार्थ से परे नहीं हो सकती.

*राजनीतिक कारणों से चुने गए स्वतंत्र निदेशकों का एकमात्र एजेंडा कम्पनियों के कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी ( सीएसआर) खर्च का उपयोग अपने राजनीतिक हितों और प्रचार के लिए करना होता है.*

*यह किसी भी प्रकार से बेहतर कंपनी संचालन या प्रबंधन नहीं हो सकता.*

*स्वतंत्र निदेशकों की स्वतंत्रता और बेहतर कंपनी प्रबंधन के लिए राजनीतिक दखलंदाजी बंद करते हुए, इनकी नियुक्ति सिर्फ और सिर्फ पैशेवर और व्यापारिक कारणों से ही होना चाहिए एवं इसके लिए स्वतंत्र निदेशक संस्थान को ही चयन प्रक्रिया और मापदंड स्थापित हेतु शक्ति प्रदान करनी होगी.*

*लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर

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