साइंटिफिक-एनालिसिस: 75 वर्ष पुराने संविधान पर चर्चा नहीं, व्यवस्थित करने की जरूरत

भारत का संविधान कोई बच्चा व ईंसान नहीं की उसका समय के साथ हेप्पी बर्थ डे, सिल्वर जुमली, गोल्डन जुमली बनाया जाये | यह भारतीय लोकतन्त्र में आम नागरिकों की सरकार कैसे कार्य करेगी उसको निर्धारित करे गये नियम व उस सरकार के मूलभूत मौलिक आधार क्या हैं जिन्हें स्थिर बनाये रखते हुए उसके इर्द-गिर्द सारी प्रक्रियाओं को एक श्रृंखलाबद्ध करने का लिपिबद्ध संग्रह हैं | यह लिपिबद्ध संग्रह किताब के रूप में संकलित हैं ताकि लिखे हुए अक्षर कटे, फटे, गले व मिटे नहीं |

इस किताब को झुककर, दण्डवत प्रणाम करना व नमस्कार करना विज्ञान की तकनीकी कसौटी पर उसके प्रति आदर व सम्मान प्रकट करना हैं परन्तु वह जीवित प्राणी होनी चाहिए | संविधान की संकलित किताब को पढकर आम लोगों व नई पीढी को उसके भावार्थ को समझाना एवं उनके एवं भारत-सरकार किस तरह सुरक्षित हैं यह विश्वास दिलाना ही विज्ञान की तकनीकी कसौटी पर उसके प्रति आदर व सम्मान प्रकट करना होता हैं |

संविधान की किताब को बार-बार झुककर, दण्डवत प्रणाम करके, शरीर के अंगोंं पर उसे लगाकर अभिव्यक्ति करने की अति करना राजनीति की भाषा में साम नीति के सिद्धांत को चरितार्थ करना होता हैं व मानवीय मूल्यों एवं नैतिकता की कसौटी पर आडम्बर कहलाता हैं। साम नीति अर्थात् व्यक्ति विशेष को बड़ा, ताकतवर, गुणी, सर्वक्षेष्ठ बताकर उसकी महिमामंडन करते हुए अपना काम निकाल लेना होता हैं | संविधान की किताब को बार-बार दिखाकर अपनी बात कहने की अति भी आडम्बर के दायरे में आती हैं लेकिन किताब में लिखे नियम को बोलते हुए किसी घटना को व्याखित करना पूर्णतया सही होता हैं।

किताब को लेकर बार-बार आडम्बर करने से लोगों के दिल व दिमाग पर बुरा असर पड़ता हैं वह उसमें लिखी बातों को आत्मसाध नहीं कर पाती व समय के साथ भूल जाती हैं और उसे पूजने, जमीन पर न रखने, टीका तिलक करने, महिमामंडन के गीत गान करने के अंधविश्वास में जकड़ जाती हैं और अपने तन-मन-धन को समर्पित एवं न्यौछावर करके जीवन को दुख, परेशानियों, पीडाओं के मार्ग पर धकेल कर व्यर्थ ही गवा देती हैं |

भारत के संविधान को 26 नवम्बर 2049 को संविधान सभा ने पास किया जो देश में 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था | इस पर चर्चा करने से उसमें खूबियों के साथ समय के गतिशील बढ़ते चक्र के अनुरूप जो कम्मीयां उत्पन्न हो गई वो दिखाई देने लगती हैं परन्तु चर्चा समय के तिनों काल भूत, वर्तमान व भविष्य पर बराबर-बराबर दृष्टिकोण डालती हो न कि अपनी इज्जत बनाने के लिए सामने वाले की ईज्जत बिगाडने के नई राजनैतिक सिद्धांत पर आधारित हो | यह भी सिर्फ संविधान संसोधन तक जाकर रूक जाती हैं |

यदि संसोधन न करो तो वह एक ही समय पर स्थिर होकर रूक जायेगी जिसका परिणाम हमने कई धर्मों एवं धार्मिक सभ्यताओं को मिटते व क्षीण होते देखा हैं | यदि संविधान का बार-बार संसोधन कर अति करी गई तो वह बिखर कर खत्म हो जायेगा | इसे साधारण भाषा में समझे तो संविधान की किताब जिसमें सभी कागज एक जिल्ड के रूप में बंधे हैं उनमें संसोधन के नाम पर नये-नये कागज ठूसने पर वो किताब को फुलाकर बिखेर देगी क्योंकि वो जिल्ड के अन्दर सभी कागजों के साथ संकलित नहीं हो पाते हैं।

भारत के संविधान में 106 संशोधन हो चुके हैं परन्तु यह सभी संविधान की किताब में दूसरे कानूनों के साथ समाहित होकर एक साथ जिल्ड में नहीं बंधे हैं इस कारण सबकुछ उल्टा पुल्टा हो रहा हैं | राष्ट्रपति व मुख्य न्यायाधीश अलग-अलग संविधान दिवस बनाते हैं जबकि संविधान एक हैं, संविधान की शपथ दिलाने वाले मुख्य न्यायाधीश गणतन्त्र दिवस पर निचे बैठते हैं और उनसे शपथ लेने वाले राष्ट्रपति और उनसे आगे शपथ लेने वाले उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री मंच के ऊपर बैठते हैं, संविधान की शपथ लिया मुख्यमंत्री उसी संविधान के कानून से जेल में बन्द कर दिया जाता हैं, न्यायपालिका का प्रमुख रहा व्यक्ति कार्यपालिका व विधायिका में निचले पद पर बैठ जाता हैं, मुख्यमंत्री रहा व्यक्ति अपने निचे काम कर चुके व्यक्ति के निचे उपमुख्यमंत्री बन जाता हैं |

इसलिए साइंटिफिक-एनालिसिस की माने तो संविधान पर चर्चा से पहले उसे व्यवस्थित करने पर तुरन्त काम करना चाहिए, जो हैं संविधान की किताब की जिल्ड को खोलकर सभी कानूनों व नियमों को एक साथ संकलित करना | यह राष्ट्रपति व उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के अधीन ही सम्भव है क्योंकि इन दोनों को ही संविधान संरक्षक का दर्जा प्राप्त हैं | सबसे महत्तवपूर्ण बात यह काम संवैधानिक एवं सरकारी पद पर कार्य कर चुके व्यक्ति और कर रहे व्यक्ति नहीं कर सकते हैं |

संविधान का पहली बार बना ग्राफिक्स रूप राष्ट्रपति के पास प्रमाण सहित कभी का पहुंच चुका हैं | वर्तमान का कटु सत्य यह हैं कि राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश में संविधान दिवस को लेकर संवैधानिक मर्यादा की दरार पड चुकी हैं इसलिए रक्षक ही भक्षक बन रहे हैं व अपने संवैधानिक कामों को चौकीदार भेजकर पूरा कर रहे हैं तो चर्चा के बाद बिखरे संविधान के नियमों के कागजों में नास्ता करने के अलावा हासिल भी क्या हो सकता हैं |

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

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