यह मामला मध्यप्रदेश का हैं परन्तु ऐसी ही व्यवस्था और खामियां देश के सभी राज्यों में लागू हैं | इसके तहत मीडीया को विज्ञापन व पत्रकारों के लिए सुविधाएं वाली योजनाएं जनसंपर्क विभाग के माध्यम से दी जाती हैं | यह विभाग तथाकथित सरकार यानि कार्यपालिका के अन्तर्गत आता हैं |
मध्यप्रदेश के इस विभाग में जब सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई कि पत्रिकाओं और वेबसाईटों को शासन द्वारा कितना विज्ञापन मीला हैं | जब जानकारी सामने आई तो पता चला की जनसंपर्क आयुक्त की नाक के नीचे आने वाला आईटी हेड आत्माराम शर्मा ने छोटे पत्रकारों, पत्रिकाओं व अखबारों का हक मार के अपनी पत्नी की पत्रिका गर्भनाल को ढाई लाख का विज्ञापन और वेबसाइट को 30 लाख से अधिक का विज्ञापन जारी कर दिया | जबकि प्रदेश के हजारों पत्रकारों को केवल साल में दो बार 15-15 हजार के विज्ञापन देने के लिए नाको तले चने चबवा दिये जाते हैं | कही लोग तो शयाने होते हैं जो पहले ही चना खिला के दांतों से चबवा देते हैं |
यह तो एक अधिकारी स्तर की बात हैं अब इसके ऊपर के स्तर के अधिकारी व पार्टी विशेष के मंत्री की बात आती हैं तो फिर क्या होता हैं वो आप अपने सम्पर्क के पत्रकार से आसानी से समझ सकते हैं |
अब बात करते हैं लोकतंत्र के अन्य स्तम्भ न्यायपालिका की जहां तमिलनाडु में स्टालिन सरकार ने वकीलों की फीस तय कर दी तो चेन्नई हाईकोर्ट के जस्टिस सी वी कार्तिकेयन को गुस्सा आ गया, सुनवाई के दौरान ही उन्होंने कहा कि वकीलों को सरकार ने कांट्रेक्ट वर्कर बना दिया | सरकार ऐसा करके वकालत के पेशे का अपमान कर रही हैं |
हम यहां फीस की राशि व कौन सही या गलत को छोडकर इस बात पर ध्यान दिलाना चाह रहे हैं कि राज्य स्तर की न्यायपालिका का संवैधानिक चेहरा अपने लोगों के लिए बोलने हेतु तैयार खड़ा हैं |
विधायिका (संसद) अपने लोगों के लिए स्वयं कानून बनाती हैं | कार्यपालिका (प्रधानमंत्री कार्यालय) अपने लोगों के लिए स्वयं सुविधाएं एवं प्रमोशन का स्तर तय करती हैं | इसके विपरीत मीडीया का संवैधानिक चेहरा नहीं होने से कोई पत्रकारों के मेहनताने व सुविधाओं पर कानून बोलने वाला कोई नहीं हैं | छोटे – बड़े कही मीडीया संगठन हैं परन्तु वे असंगठित और अपने अन्दर राजनीति घुस जाने के कारण बिखरे पडे हैं |
तथाकथित सरकार यानि कार्यपालिका मीडीया के स्तम्भ के लोगों को पैसा देने में घालमेल कर जाती हैं चाहे ये अधिकारी स्तर पर ही क्यों ना हो |
जबकि स्वतन्त्र मीडीया के लिए मीडीया के संवैधानिक चेहरे के अधीन ही अनुभवी पत्रकारों का पैनल होना चाहिए जो भारत सरकार से आये पैंसो का समान मापदण्ड के तहत हर छोटे से छोटे पत्रकार व प्रकाशन की योग्यता, दायरे व कार्य के अनुरूप उसका विज्ञापन एवं अन्य योजनाओं के नियमों-कानूनों को ध्यान में रखते हुए पैसों का वितरण करे | यह बात नैतिक रूप से सही हैं कि इस पैनल में कार्यपालिका अपने एक व दो मेम्बर को नियुक्त कर सकती हैं परन्तु लोकतंत्र की मर्यादा के अनुसार फैसला बहुमत से ही तय होने चाहिए |
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक