साइंटिफिक-एनालिसिस : लोकतंत्र पर लगा पांच राज्यों का चुनावी-ग्रहण खत्म हुआ!

 

संवैधानिक सच्चाई तो यही है कि वोट डालना जनता का अधिकार है व उसी के कारण लोकतंत्र टीका हुआ है जबकि बदली परिस्थितियों व जिस तरह से चुनाव के समय में खबरें आती है, बयानबाजी होती है, मीडिया एवं अन्य संसाधनों के माध्यम से माहौल बना लोगो को भ्रमित किया जाता है, झूठे खयाली पुलाव के जयकारों, बिना योजना व पालिसी के चाँद-तारे तोड़ लाने के दावों, अश्लील, गाली-गलौच व भड़काऊ बयानबाजी व व्यक्तिवादी छीछा-लीदर और सभी अपराधों को चुनाव के नाम पर जिस तरह से ढक दिया जाता है उसे “ग्रहण” के अलावा और क्या कहा जा सकता है? वर्तमान में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना व मिजोरम में हुए विधानसभा चुनावों को भी इसी दृष्टि व सोच से समझा जा सकता हैं |

मीडिया की बात करी जाये तो सबसे ज्यादा अनपढ़, गवार व सत्ता को जबरदस्ती किसी का गुलाम बनाने का चेहरा इन्ही का नजर आता है | यह किसी स्वार्थ, लालच या इसमें घुसे दो-चार चेहरों, संगठनो या फर्जी वाले नामों की वजह से ही क्यों ना हो परिणाम तो यह नहीं देखता है | सरकार क्या होती हैं, यह किन-किन संगठनों व तन्त्रों से मीलकर बनती हैं यह संवैधानिक ज्ञान होता तो आज इनके पत्रकारिता का भी संवैधानिक चेहरा होता और राष्ट्र के प्रति जवाबदेही वाले कानूनी अधिकार होते | इनका काम भी चन्द पैसों के सिक्कों पर नहीं तौला जाता बल्कि इनके सामुहिक नेतृत्व वाले व्यक्ति को मीडिया के आगे भारतीय होने का गौरव मीलता और वह भी राष्ट्रीय पर्वों पर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक जिसमें अमर जवान ज्योति विलिन हैं उसे मीडिया की तरफ से श्रृद्धांजलि अर्पित करता व गणतंत्र दिवस की परेड में मंच पर उपस्थिति दर्ज करवा कर तिरंगे व झण्डे को राष्ट्रीय सलामी में भागीदार बनता |

पाँच राज्यो में चुनाव परिणाम के बाद अभी यह पार्टी जीत गई, वो पार्टी हार गई का शंखवाद हो रहा हैं, ढोल-नगाड़े पीटे जा रहे हैं व आगे पूरी सरकार नहीं अपितु उसके कार्यपालिका वाले हिस्सें का गठन हो जायेगा परन्तु चिराग लेकर ढूढने पर भी आपको बड़ी मुश्किल से एक आधा ही कोई चैनल, अखबार व पत्रिका मिल पायेगी जिसमे छापा या बताया गया हो की “जनता की कार्यपालिका” का गठन हो गया | यदि बडी मुश्किल से एक आधा भी मील गया तो वो सरकार गठन का जाप करता दिखेगा उसे कार्यपालिका का कोई बोध ही नहीं हैं | ऐसी ही सरकारों को आपका साइंटिफिक-एनालिसिस तथाकथित सरकार कहकर दूध को दूध व पानी को पानी रखता हैं |

इस पार्टी की सरकार, उस पार्टी की सरकार व इससे भी निचे दर्जे की सोच का भौंडा मजाक करते हुये फलाने व्यक्ति की सरकार बन गई को उस तरह दिखा-दिखा कर व गा-गा कर लोगो के दिमाग में जबरदस्ती घुसाया जाता है जैसे एक झूठ को सच साबित करने के लिए उसे लगातार पचास से ज्यादा बार गाया जाता है |

इसी तरह अपरहित व राजनैतिक पार्टियों के माध्यम के माध्यम से बंधी बनी सरकार के नेतागण, चुनाव से पूर्व दलबदलू लोग, हारे हुये प्रत्याशी, आपराधिक तत्व उस एक व्यक्ति का मौखोटा लगाकर पुलिस पर उसकी सरकार का रोप जाड़कर जिस तरह अपनी खोटी-चवनी रोड पर चलाता हुआ दिखता है व किसी गुलामी की झनझनाहट से कम नहीं …….

पाँच विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद अब राजनैतिक दल की पांचवें दर्जे की सोच वाले व्यक्ति गणितीय विज्ञान को चतुराई की तरह इस्तेमाल करेंगे और वोटों को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट वर्तमान की व्यवस्था / तरिके से नाखुश जनता को एंटी-गवर्नमेंट वोट के चद्दर से ढ़क एक या दो-तीन पती वाले व्यक्ति के पीछे छुपा डालना अपने आप में सच्चाई के प्रकाश पर ग्रहण की काली छाया का भविष्य पर प्रश्न चिन्ह है ? चुनाव में वोटिंग से पूर्व जो लोग एक एक-दूसरे पर जुबानी बाण चलाते हैं, भद्दी पदवियाँ देते हैं व आपस में एक-दूसरे को समस्याओं की जड़ बताते हैं वे ही चुनावी परिणाम के बाद जिस तरह से मिलते है व मीडिया में मुस्कराती फोटो खिंचवाते है जो व्यक्तिवाद के रंजिश, सत्तालोलुपता, स्वार्थ के दृस्टिकोण से सही है परन्तु जो दोषारोपण हुये उन्हें गड्ढो में डालना मतलब पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को गढे में धकेलने जैसा है | इस वोट डालने वाली जनता के उप्पर यह कहावत चरितार्थ करना होता है कि वक्त आने पर “गधे को बाप” कैसे बनाया जाता है | लोकतन्त्र तो यह कहता हैं कि उन आरोपो की सरकार (तथाकथित) गठन से पहले न्यायपालिका से तुरन्त जांच करवाई जाये और जो सच हो उनके दोषी पर कार्यवाही हो | यदि आरोप झूठे हो तो आरोप लगाने वाले को सजा दी जाये | इन लोगों को नई सरकार (तथाकथित) से दूर रखना चाहिए |

इन चुनावों के राजनैतिक घोषणा पत्रों में सिर्फ लोगों को देने की बातें ज्यादा हुई राज्य के लिए क्या करेंगे वो कहीं से झलक जाये तो बड़ी बात हैं | किसी ने राज्य का कर्जा खत्म कर देने की गारन्टी नहीं दी | अब और कर्ज लेने पर पाबन्दी की बात नहीं करी | किसी ने निर्माण की विवेचना करते हुए योजना नहीं रखी | सामाजिक जीवन के मूल्यों को ऊपर उठाकर राज्य को दुसरे राज्यों से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करते हुए नम्बर वन बनाने का वादा नहीं किया |

वोट देने वाली जनता के पैसे जो सरकारी खजाने में जाते हैं उन्हें बन्दरबांट करके साईकिल, स्कूटी, टेलिविज़न, साड़ी, सहायता रकम, बरोजगारी भत्ता, अनुदान राशि, सबसीडी, मुफ्त का राशन, योजना के चादर के अंधेरे मे पैसा रख बांटने, चारधाम यात्रा, धार्मिक अनुष्ठान व चढावा, टैक्स में छूट, 5-10 रूपये वाले भोजन, कार्ड के सहारे जिन्दगी लटकाकर होने वाले ईलाज इत्यादि-इत्यादि के रूप में कुड़की बाजार की बोली की तरह सभी दलों के लोग उसी जनता के आंखों व मानसिक सोच के ऊपर व्यक्तिवाद, भेदभाव, जात-पात व धर्म-संप्रदाय के झाले लपेटकर पांच साल के लिए जनता की लोकतांत्रिक सरकार की चांबी पर हाथ साफ कर जाते हैं |

21वी सदी व राजनैतिक लूट-खसोट, मारामारी, छीना-छपटी के दौर में असली प्रशन तो यह हैं जिन पर जवाब चुनाव से पहले दिया जाना चाहिए | जैसे – वोटिंग मशीन में नोटा के मत ज्यादा हुये तो चुनाव वापस होंगे या राष्ट्रपति-शासन के रूप में प्रशासन काम करेगा? उम्मीदवारों ने आवेदन में जो आपराधिक मामलें भरे उस पर फास्ट ट्रैक कोर्ट बैढाकर चुनाव से पहले फैसला होगा ? चुनावी खर्चे में जितनी सम्पत्ति बताई उतनी सम्पत्ति व पांच साल की सरकारी आय को छोड़कर सबकुछ कार्यकाल के पुरा होने पर जब्त होगी ? जनप्रतिनिधि जीतने के बाद जनता से राय लेकर विधानसभा / संसद में न रखता हैं और वोट करता हैं तो उसे वापस बुलाने का तरीका क्या होगा ? जीतने के बाद राजनैतिक खेमेबाजी बदल, इस्तीफा / निलम्बित होकर वापस चुनाव लादता हैं तो उससे वर्तमान चुनाव का पूरा खर्च ब्याज सहित वसूला जायेगा ? राजनैतिक दल दलबदलू, बदमाश लोगों का चयन करके वापस जनता को समय, पैसा, कामधन्धा छोडकर असमय चुनाव के लिए मजबूर करते हैं तब ऐसी परिस्थिति में उनसे वसूली के साथ कानूनी कार्यवाही क्या होगी ? चुनावी घोषणा-पत्र व उसके दांवे संविधान व कानून के आधार पर सही हैं या गलत उसकी एन.ओ.सी. (नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट) चुनाव पूर्व न्यायपालिका से लेना अनिवार्य होगा ?

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

Shares