सहकारी समितियां हो या सहकारी संस्थाएँ हो या फिर सहकारी बैंक हो- सभी आज के समय भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े हुए है. राज्य स्तर पर हालात ज्यादा खराब है और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होना चाहिए कि लूट का संगठित अड्डा बनते जा रहे हैं.
सूक्ष्म और छोटे स्तर पर खासकर खेती और कुटीर उद्योग के उत्थान में सहकारी क्षेत्र के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
इसमें कोई शक नहीं कि इस क्षेत्र की मजबूती जमीनी स्तर पर काम कर रहे छोटे किसानों, कामगारों और उद्योगों को मदद करेगी जो हमारी जीडीपी का अहम हिस्सा है और असल मायनों में जीडीपी का दायरा भी तभी बढ़ेगा.
इस जरूरत को समझते हुए और इस क्षेत्र के उत्थान के लिए हाल में ही केन्द्र सरकार ने सहकारिता मंत्रालय का गठन किया है और अब जरूरत है इस क्षेत्र को पूरे भारतवर्ष मे एक केन्द्रीय कानून के अन्तर्गत लाने की.
यह इसलिए जरुरी है क्योंकि हर राज्य के सहकारी विभाग में व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार है और कुछ प्रमुख समस्याएं है:
- सहकारी संस्थाओं के चुनाव में बोर्ड का पुनर्गठन और उनके मेंबर को चुनाव जिताने के लिए घूस लेना।
- कर्मचारियों की नियुक्ति में घपला। अपने चहेतों को संविदा पर कर्मचारी लगाने और बाद में उन्हें स्थाई करने के लिए रिश्वत लेना।
- विभाग द्वारा विरोधी पार्टियों को उनके फायदे के लिए कानूनी राय देना, विभाग की कमजोरी बताना जिससे वे मामले में जीत हासिल कर सकें।
- विभाग में अपनी पसंद के लोगों का पदस्थापन करवाना जिससे कि उनके जरिये भ्रष्टाचार कर सकें।
- ठेकेदार से मिलीभगत और रिश्वत लेकर समिति के हितों को दरकिनार करते हुए उन्हें भुगतान करवाना।
ऐसे में एक केन्द्रीय कानून की जरूरत इसलिए है क्योंकि राज्य स्तर पर मंत्रालय और विभाग इन समस्याओं पर नियंत्रण करने में अब तक नाकाम रहे हैं और पूरा तंत्र भ्रष्ट हो चुका है.
सहकारी बैंकों की समस्याएं दूर करने के लिए आरबीआई ने कुछ कदम जरूर उठाए हैं और उन्हें अपने नियंत्रण में लेने की बात कही है लेकिन दिल्ली अभी दूर है यदि आप निम्नलिखित आंकड़ों पर गौर करें:
केंद्रीय वित्त मंत्रालय के मुताबिक सहकारी बैंकों ने 2017-18 में 1,50,321 करोड़ रुपये का कृषि कर्ज दिया था. जो 2019-20 में 1,57,367 करोड़ हो गया है.
इन बैंकों से राज्यों के कृषकों को खेती के लिए बहुत कम लोन मिल रहा है. सियासी पहुंच वाले लोग ही इसका फायदा उठा रहे हैं.
नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट- नाबार्ड ने सहकारी बैंकों के समक्ष आ रही खराब आर्थिक स्थिति और टेक्नॉलोजी अपनाने में धीमी गति जैसी समस्या को चिन्हित किया है.
इसके आगे नाबार्ड कहता है जिस दिन सहकारी बैंक नेताओं के चंगुल से मुक्त हो जाएंगे उस दिन इनकी स्थिति सुधर जाएगी.
इसके जरिए कृषि क्षेत्र काफी तरक्की कर सकता है. लेकिन स्थानीय कर्मचारी नियुक्त होने बंद हों तब. क्योंकि वो सिर्फ अपने चहेतों को लोन देते हैं. आम किसान तो इससे वंचित रह जाता है.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने सहकारी बैंकों में सीईओ और पूर्णकालिक निदेशक बनने के लिए न्यूनतम योग्यता और उम्र तय कर दी है:
-अब सीईओ की न्यूनतम उम्र 35 साल से कम और 70 साल से अधिक नहीं होनी चाहिए.
-कोई भी व्यक्ति बैंक के एमडी और पूर्णकालिक निदेशक के पद पर 15 साल से अधिक वक्त तक नहीं रहेगा.
-अब सहकारी बैंकों में एमडी व पूर्णकालिक निदेशक बनने के लिए ग्रेजुएट होना अनिवार्य है.
-सीए, कॉस्ट अकाउंटेंट, एमबीए, बैंकिंग या कॉ-ऑपरेटिव बिजनेस मैनेजमेंट में डिप्लोमा या डिग्री.
-सहकारी बैंकों में शीर्ष पद उन्हीं लोगों को दिए जाएंगे, जिनके पास बैंकिंग सेक्टर का अनुभव हो.
-मध्यम या वरिष्ठ स्तर पर प्रबंधन का कम से कम 8 साल का अनुभव चाहिए.
आपको ध्यान होगा कि 2020 में पंजाब एंड महाराष्ट्र कॉ-ऑपरेटिव बैंक मामले में इस बैंक के सीईओ ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर फंड को रियल एस्टेट डेवलेपर्स को डाइवर्ट कर दिया था, जिसका खामियाजा बैंक के हजारों ग्राहकों को उठाना पड़ा.
इस घोटाले के बाद केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश लाकर 1482 शहरी सहकारी बैंकों और 58 मल्टी स्टेट सहकारी बैंकों को आरबीआई की निगरानी में रखने का फैसला किया.
इस बदलाव से पहले सहकारी बैंकों की निगरानी का जिम्मा आरबीआई की कोऑपरेटिव बैंक सुपरवाइजरी टीम का होता था. लेकिन सामान्य तौर पर यह सेक्शन कम सक्रिय रहता है. लिहाजा गड़बड़ियां हो जाती थीं.
आज भी कई राज्यों के सहकारी बैंकों में अपना जमा पैसा निकालने में ग्राहकों को पसीने छूट रहे हैं.
देश में 1544 शहरी सहकारी बैंक (यूसीबी) हैं. जिनमें सबसे अधिक 496 महाराष्ट्र में हैं. दूसरे नंबर पर कर्नाटक है जहां 263 बैंक हैं. जबकि 219 के साथ गुजरात तीसरे नंबर पर है. राज्य सहकारी बैंक 34 एवं 352 जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंक हैं.
वित्त मंत्रालय, आरबीआई और नाबार्ड के उपरोक्त आंकड़ों से जाहिर है कि भ्रष्टाचार के अड्डे बन चुके सहकारिता क्षेत्र को जनहित और आर्थिक विकास का क्षेत्र बनाना सरकार के समक्ष एक प्रमुख चुनौती है जिसके लिए एक केन्द्रीय सहकारिता मंत्रालय के साथ जीएसटी जैसा एक केन्द्रीय सहकारिता कानून बनाने की भी जरूरत हैं.
लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर