सरकारी स्कूलों की ग्रेडिंग

 

सरकारी स्कूलों की ग्रेडिंग
सरकार लगातार कहीं माडल स्कूल खोल रही है, कहीं एक्सीलेंस स्कूल खोल रही है और अब तो मुख्यमंत्री राइज स्कूल भी खोल दिए गए हैं। इनका उद्देश्य सामान्य स्कूलों से बेहतर पढ़ाई ही है, लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि सरकारी स्कूलों में से एक को भी ए प्लस ग्रेड नहीं मिल पाया है।
राज्य शिक्षा केंद्र द्वारा जारी रिपोर्ट में सामने आई जानकारी में यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि प्रदेश के पहली से आठवीं तक के 1 लाख सरकारी स्कूलों में से एक को भी ‘ए’ प्लस ग्रेड नहीं मिला है। यह रिपोर्ट पिछले साल में दो हिस्सों में तैयार की गई। पहली जून से अगस्त और दूसरी सितंबर से नवंबर 2022 के बीच की है। इसका खुलासा हुआ विधानसभा में कांग्रेस विधायक हर्ष विजय गेहलोत के सवाल के जवाब में।
जवाब में स्कूल शिक्षा मंत्री इंदर सिंह परमार कहते हैं कि शिक्षा के स्तर में सुधार के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। स्कूलों में प्रवेश, बच्चों और शिक्षकों की उपस्थिति, पढ़ाई, समानता, स्कूलों में अधोसंरचना विकास, प्रशासन और वित्तीय प्रबंधन तथा साक्षरता कार्यक्रम आदि बिंदुओं को लेकर स्कूलों का 100 अंक का रिपोर्ट कार्ड तैयार किया गया था। रिपोर्ट में छात्रों के स्वास्थ्य, मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता और नियमितीकरण, विद्यार्थियों के सामान्य ज्ञान जैसे पैरामीटर नहीं जोड़े गए, जिस पर सवाल में आपत्ति जताई गई। पहली तिमाही यानी जून से अगस्त के बीच ए ग्रेड 15 जिलों को प्राप्त हुआ जो दूसरी तिमाही सितंबर से नवंबर के बीच 3 जिलों में सिमट गया।
जून से अगस्त के बीच रतलाम जिला प्रदेश में अकेला था जो ‘सी’ ग्रेड में था। दूसरी तिमाही में सात और जिले इसमें जुड़ गए। पहली तिमाही में सी ग्रेड में रतलाम और दूसरी में धार सबसे नीचे रहा। भोपाल दूसरी तिमाही में 51 से 29वें, इंदौर 42 से 28वें और जबलपुर 37 से 25वें स्थान पर पहुंच गया। यहां एक बात यह उल्लेखनीय है कि प्राइवेट स्कूलों में सरकारी स्कूलों के मुकाबले शिक्षकों को वेतन कम मिलता है। हालांकि सरकारी स्कूलों में भी कई श्रेणियों वाले शिक्षक हो गए हैं, जिनमें संविदा शिक्षक भी शामिल हैं, लेकिन कुल मिलाकर तो संविदा वाले शिक्षकों का भी वेतन कई जगह प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों से बेहतर है। स्कूली शिक्षा की ही बात की जाए तो सरकारी व्याख्याताओं और प्राचार्यों का वेतन जितना है, कई स्कूलों में आधा स्टाफ उतना वेतन कुल मिलाकर पाता है।
सवाल यहां शायद केवल वेतन का नहीं है। मुद्दा अहम है, प्रबंधन का। मुद्दा महत्वपूर्ण है कौन अपनी ड्यूटी बेहतर तरीके से निभाता है। प्रबंधन में केवल स्कूलों का प्रबंधन शामिल नहीं है, अपितु यह भी शामिल होता है कि बेहतर स्किल वाले शिक्षकों को लूप लाइन में डाल दिया जाता है। कई बार वे लिपिकीय कार्य कर रहे होते हैं। कई स्कूलों में दो शिक्षक पूरी प्राथमिक शाला के बच्चों को पढ़ा रहे होते हैं, तो राजधानी सहित कई शहरों में स्कूलों में जुगाड़ वाले शिक्षकों की भरमार होती है। वे चेहरा दिखाने ही स्कूल जाते हैं। संचालनालय में और संभागीय व जिला कार्यालयों में कई अच्छे शिक्षक मक्खियां मारते मिल जाएंगे, तो कई शिक्षक पढ़ाने के बजाय आवासीय विद्यालयों में कमाई करते मिल जाएंगे।
स्कूल शिक्षा मंत्री से लेकर अधिकारी तक या तो शिक्षकों की ट्रांसफर पोस्टिंग पर ज्यादा ध्यान दे रहे होते हैं या फिर कहां कौन सी बड़ी योजना ले जानी है, जिसमें अच्छी राशि मिल जाए, इस में अधिक व्यस्त रहते दिखते हैं। भाषणबाजी और बयानबाजी अधिक होती है। कार्यशालाओं के नाम पर भी अपनी पसंद के लोगों को बुलाकर उन्हें उपकृत कर लिया जाता है। ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों से अच्छे बच्चे नहीं निकलते, लेकिन बेहतर प्रबंधन का सर्वथा अभाव होता है। शिक्षा के परिसरों में राजनीति और विचारधाराओं की जंग भी कहीं न कहीं प्रभावित करती है। भ्रष्टाचार का रोग यहां भी लगा हुआ है, यही कारण है कि अच्छी स्किल वाले शिक्षकों को हाशिए पर रख दिया जाता है या फिर आवासीय स्कूलों में भेजकर उन्हें भी भ्रष्टाचार के तरीके सिखा दिए जाते हैं, जहां बच्चों की फर्जी संख्या से लेकर तमाम और मामले अहम हो जाते हैं, जिनमें शिक्षक उलझा रहता है, उसे ऊपर तक पैसा भी पहुंचाना होता है।
केवल वेतन ही मामला नहीं होता, उनकी यूनियनें भी बनी होती हैं। उसकी राजनीति अलग होती है। कुल मिलाकर सरकारी स्कूलों की रामकहानी अलग ही है। इसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। हां, फर्जी गे्रडिंग करके स्कूल शिक्षा को बेहतर दिखाने के प्रयास तो कभी भी हो सकते हैं, होते रहते हैं। वैसे तो सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को राष्ट्रपति पुरस्कार तक मिल जाते हैं, लेकिन स्कूलों की गे्रडिंग आशाजनक नहीं हो पाती।
-साभार,   संजय सक्सेना
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