शिवराज है तो विश्वास है….

शिवराज है तो विश्वास है….

प्रकाश भटनागर :-
एक पुरानी मान्यता पूरे नए रूप में चमचमाती हुई फिर सामने आ गई। कहा जाता है कि कुछ बुरा होने में भी अच्छा होने का भाव छिपा रहता है। मध्यप्रदेश की 28 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भी इस बात से जोड़े जा सकते हैं। दिसंबर, 2018 में शिवराज सिंह चौहान सरकार को बहुमत नहीं मिल पाया था। बीजेपी कुछ सीटों से पिछड़ गई थी। इस पराजय का मुख्य फैक्टर शिवराज के तेरह साल के कार्यकाल में उपजी एंटी-इंकम्बैंसी को माना गया। हालांकि यह तब भी साफ था कि एंटी इनकंबेंसी शिवराज से ज्यादा मंत्रियों और विधायकों को लेकर थी। अब पन्द्रह महीने की कमलनाथ सरकार की सत्ता में वापसी की संभावनाएं पूरी तरह बंद हो चुकी हैं

इस लिहाज से 2018 के जाड़े में बीजेपी को लगा झटका आज उसके लिए किसी सफल मौके की तरह सामने आया है। पंद्रह महीने के दौरान प्रदेश की जनता को शिवराज और कमलनाथ के बीच तुलना करने का पूरा मौका मिल गया। बीते विधानसभा चुनाव के बाद से ही पाया जा रहा था कि लोगों को बीजेपी की हार से भले ही कोई दुख न हो, लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज को खो देने का गम उन्हें बहुत अधिक साल रहा था। अब उपचुनाव की 28 में से 19 सीटों पर बीजेपी की जीत के साथ ही मतदाता ने अपने उस अफसोस से पार पाने का काम कर दिखाया है। मंगलवार को आए नतीजे साफ बताते हैं कि मतदाता ने तेरह साल बनाम पंद्रह महीने के तुलनात्मक अध्ययन में शिवराज को ही बेहतर पाया है।

‘शिवराज है तो विश्वास है’ का बीजेपी का नारा कारगर साबित हुआ। अपनी दुर्दशा के बाद कांग्रेस को चाहिए कि वह बीजेपी से सबक ले। बीजेपी ने शिवराज के भरोसेमंद चेहरे के साथ अपनी संगठनात्मक क्षमता के दम पर चमत्कारिक परिणाम हासिल किए। चमत्कार वाली बात को उसकी जीत से ना जोड़े। यह फैक्टर इस रूप में देखें कि कांग्रेस ने जिन्हें ‘बिकाऊ’ और ‘गद्दार’ कहा, उनमें से ज्यादातर की जीत का आंकड़ा तीस से साठ हजार तक पहुंच गया। ऐसा इसलिए कि भाजपा ने अतिथि के सत्कार सहित उसकी हिफाजत का भी पूरी शिद्दत के साथ ध्यान रखा। पार्टी ने बूथ से लेकर राज्य मुख्यालय तक तगड़ी फील्डिंग की, जिससे सिंधिया के साथ आए उनके समर्थक भारी अंतर से जीत गए।

जो सिंधिया के साथ कांग्रेस में नहीं थे लेकिन विधायकी छोड़कर बीजेपी के साथ आए, उनका भी बीजेपी ने पूरा ध्यान रखा। आखिर वे हरदीप सिंह डंग ही थे, जिनके निर्वाचन क्षेत्र से शिवराज ने घुटनों के बल बैठकर राजनीतिक शिष्टाचार की नयी परंपरा शुरू की। उन्होंने कमलनाथ सरकार गिराने के लिए अपनी विधायकी पर दांव लगाने वाले लोगों के चुनाव क्षेत्र में सौगातों की झड़ी लगा दी। फिर भाजपा के लोगों ने जी-तोड़ परिश्रम कर उन लोगों को जिताने की सफल कोशिश की, जिनसे वह पिछले कई दशकों से संघर्ष करते आ रहे थे। ऐसे लोग, जिनकी सरकार के पंद्रह महीने के कार्यकाल में कई भाजपाई ही प्रताड़ना के आरोप लगाते आ रहे थे।

यदि सिंधिया के समूह का दल बदलना बड़ी बात थी, तो परंपरागत विरोधियों के लिए भाजपाइयों का दिल बदलना इससे भी बड़ा फैक्टर रहा है। राज्य में यदि भाजपा की सत्ता और संगठन के बीच मेहनत और समर्पण से भरी जुगलबंदी नहीं होती तो इस पार्टी के लिए कांग्रेस को दहाई से भी कम के आंकड़े पर रोक पाना आसान नहीं रहता। शिवराज ने बहुत बड़ा जोखिम लिया। अपना चेहरा आगे रखकर चुनाव का नेतृत्व किया। यदि इसमें तनिक भी उन्नीस-बीस वाले नतीजे आते, तो इसका ठीकरा चौहान पर ही फूटना तय था। फिर भी उन्होंने इस रिस्क फैक्टर के आगे जाने का साहस दिखाया। कांग्रेस अब भी हार के लिए अपने जिलाध्यक्षों को जिम्मेदार ठहरा रही है। दिग्विजय सिंह इसी फैक्टर का ढोल पीट रहे हैं कि सिंधिया को उनके गढ़ में कुछ सीटों पर शिकस्त का सामना करना पड़ा। यदि मार्च, 2020 के बाद से 10 नवंबर के नतीजों के घटनाक्रम पर इस पार्टी का यही रुख है तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस को गलतियों से सबक लेने से सख्त परहेज है।

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