चाहे प्रोटोकॉल के नाम पर हो या चाहे प्रतिष्ठा पद के नाम पर हो या फिर चाहे पैसे के बल पर हो, यह भ्रष्टाचार ही तो है कि आखिर इतनी बातें करने के बाद भी आम आदमी भेड़ बकरियों के समान समझा जाता है, खासकर धार्मिक स्थलों में तो यह ही देखा जाता है।
जब आस्था का विषय हो तो हर कोई वहां जाना चाहता है, बार बार दर्शन करना चाहता है और ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करना चाहता है।
लेकिन इसके लिए उसे घंटों लाइन में, जाम में फंसे रहना होता है वो भी बिना खाये पीये बिना मूल सुविधाओं के – दान लिया जाता है और धक्के मारकर आगे बढ़ा दिया जाता है। न ही प्रशासन न ही सरकार और न ही न्याय इनके लिए आगे आता है। यदि कोई हादसा हो जाए तो कागजी कार्यवाही कर खत्म कर दिया जाता है। लेकिन खत्म नहीं होता तो वीआइपी कल्चर।
जब बात आती है वीआईपी की तो न इन्हें जाम में फंसना होता है, न ही इन्हें लाइन में खड़ा होना पड़ता है, न ही पैदल चलना पड़ता है और सभी सुविधाओं के साथ विषेश रास्ते द्वार से इन्हें दर्शन करा दिया जाता है।
जिस आम आदमी के पैसे और वोट से ये वीआईपी चल रहे हैं, वे मात्र भेड़ बकरी से कम नहीं, उन्हें मात्र अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है।
क्या आस्था या धार्मिक केन्द्रों में कोई नीति निर्धारण नहीं किया जा सकता जिससे वीआईपी कल्चर को समाप्त करते हुए आम आदमी एवं समी को समान प्रोटोकॉल से गुजरना पड़े। सुझाव यह है कि –
१. वीआईपी और वीवीआईपी दर्शन और यात्रा के लिए एक अलग दिवस या समय का निर्धारण हो।
2. आम व्यक्ति के रुकने और सुविधाओं के अनुसार दर्शन के समयानुसार बेच़ बना कर दर्शन हो।
3. बड़े धार्मिक स्थलों का प्रबंधन व्यवसायिक और विशेषज्ञ संस्थान के हाथ में हो।
4. भीड़ प्रबंधन विषय पर शोध हो ताकि हम एक समान अधिकार की बात कर सकें।
5. देश में वीआईपी कौन होगा – इसका नीति निर्धारण हो।
6. क्या करदाता या समाज सेवा या देश को उपलब्धि दिलाने वालों से ज्यादा ऊपर ये राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी होंगे।
7. रेलवे प्लैटफॉर्म प्रबंधन का स्तर हर शहर में गिरता जा रहा है। रेलवे ने केवल मंहगी होती जा रही है बल्कि सुविधाएं खत्म होती जा रही है। एसी कोच जनरल बनते जा रहे हैं। इस पर ध्यान देना होगा।
*शायद हमारे देश में वीआईपी कल्चर खत्म नहीं हो पाएगा लेकिन आम जनता को उचित सुरक्षा और सुविधा मिलें खासकर बड़े धार्मिक स्थलों पर – ऐसी उम्मीद तो की जा सकती है।*
*सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर