लोकतंत्र के मंदिर की गरिमा को ठेस पहुंचाया जाना बंद हो
विधानसभा से लेकर लोकसभा तक और इनके अलावा ऊपरी सदन राज्यसभा में भी, ऐसे नेताओं को देखने और सुनने का अवसर मिला जो एक प्रकार से मां सरस्वती के मानस पुत्र हुआ करते थे। इन सदनों को ऐसे ऐसे नेताओं ने संबोधित किया जिन्हें सुनने के लिए विरोधी दल के नेता भी लालायित रहते थे। यह उनकी वाकपटुता ही थी कि जब वे लोग बोलते थे तो सदन में एक प्रकार से पिन ड्रॉप साइलेंट की स्थिति बन जाती थी। सीधी सी बात है। ऐसे लोग जो अब राजनैतिक क्षेत्र में तेजी से कम होते जा रहे हैं, बोलने से पहले संबंधित विषय का बारीकी से अध्ययन करते रहे हैं। अध्ययन में कमी रह जाने पर और आवश्यकता पड़ने पर इनके द्वारा उपरोक्त विषय वस्तु के विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लिया जाता रहा है। यही वजह है कि ऐसे ज्ञानवान नेता जब जब बोले, भले ही विरोध में बोले, उन्हें विरोधियों की ओर से भी सम्मान प्राप्त होता रहा है। सवाल उठता है कि आज जब सत्ता पक्ष अथवा विपक्ष का कोई भी नेता किसी भी सदन में बोलने की चेष्टा करता है तो राजनैतिक प्रतिद्वंदी अधिकांश को सुनना ही नहीं चाहते। बोलने से पहले ही टोका टाकी शुरू हो जाती है। सदन की गरिमा को ठेस पहुंचाते हुए ऐसी ऐसी हरकतें की जाती हैं, जिन्हें देखकर आम आदमी शर्मिंदा होता है और यह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि इन्हें चुनकर मैंने यह क्या पाप कर डाला? राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों का यह आभामंडल इतनी तेजी से स्वयं की गरिमा को भी खो रहा है, जिसका आकलन यह वह स्वयं लगाने को तैयार नहीं हैं। बस हर कोई येन केन प्रकारेण चर्चाओं में बने रहना चाहता है। क्योंकि लगातार विद्रूप हो रही राजनीति में अनेक नेता यह मान बैठे हैं कि बड़ा बनने के लिए सदैव ही कुछ ना कुछ बोलते रहना आवश्यक है। उदाहरण के लिए हम ऐसे अनेक नेताओं के बयान याद कर सकते हैं, जिन्होंने अपने विरोधियों अथवा विरोधी दलों के खिलाफ ऐसी ऐसी आधारहीन बातें कहीं जिनका उनकी स्वयं की पार्टियों ने भी समर्थन नहीं किया। यह उनका व्यक्तिगत विचार होगा, यह कहकर संबंधित राजनैतिक दलों द्वारा अपने ही नेता से किनारा कर लिया गया। फिर भी इन बड़बोले नेताओं पर जैसे कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता। यह मोटी चमड़ी के गैर संवेदनशील लोग लगातार विवादित बयान देते चले जा रहे हैं। क्योंकि इनके खिलाफ दलीय स्तर पर भी निर्णायक कार्यवाहियों का अभाव रहा है। जिसके चलते गैर जिम्मेदार नेताओं अथवा जनप्रतिनिधियों की यह धारणा मजबूत हुई है कि वह जो कुछ भी कर रहे हैं वह सही है। शायद यही वजह रही की अब कुछ निरंकुश, वाचाल प्रवृत्ति के नेताओं ने जनसभाओं और विधानसभाओं में भेद करना भी बंद कर दिया है। जिस प्रकार जनसभा में एक अवसरवादी नेता द्वारा अपने विरोधियों के खिलाफ कुछ भी कह दिया जाता है। गंभीरतम आरोप दिए जाते हैं और फिर उनके खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं होती, तो फिर ऐसे लोगों की हिम्मत बढ़ती है। फलस्वरूप वे यही आचरण लोकतंत्र के मंदिरों में अपना लेते हैं। बीते रोज मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। वहां विधानसभा के एक माननीय सदस्य ने निहायती गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करते हुए सत्ता पक्ष पर कुछ ऐसे आरोप लगा दिए, जिनका ना कोई सिर था और ना पांव। हद तो तब हो गई जब संसदीय कार्य मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लिखित आरोप मांगे जाने पर उक्त नेता कुछ ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर बैठे जो उन्हीं की बात को झूठा साबित कर गए। इसी सत्तापक्ष का बड़प्पन ही कहा जाएगा कि विधानसभा अध्यक्ष द्वारा उपरोक्त विधानसभा सदस्य को माफी मांग कर बात खत्म करने का विकल्प दिया गया। झूठ पर हठपूर्वक अड़े हुए माननीय ने माफी मांगने की बजाय स्वयं के निलंबन का रास्ता चुना। संभवत उन्हें ऐसा लगता होगा कि उनके निलंबन हो जाने से अखबार की सुर्खियों में उन्हें स्थान मिल जाएगा और भी बदनाम ही सही, नामवर होकर बड़े नेता के रूप में स्थापित हो पाएंगे। नतीजा यह है कि उन्हें निलंबित किया जा चुका है और चारों को प्रबुद्ध वर्ग द्वारा उनके इस कृत्य की तीखी आलोचना हो रही है। लिखने का आशय यह है कि विधानसभा हो या लोकसभा अथवा राज्यसभा, यहां जनप्रतिनिधियों को बोलने के लिए ही चुनकर भेजा जाता है। लेकिन यह बात भी अपनी जगह सत्य है कि बोलने के लिए पठन-पाठन और अध्ययन की अति आवश्यकता होती है। यदि सदन में माननीय गण बोलने से पहले संबंधित विषय वस्तु का अध्ययन कर लिया करें तो उनका अपना सम्मान तो बचेगा ही सदन की गरिमा भी अक्षुण्ण रह पाएगी।इस लेख में लेखक के अपने स्वंय के विचार है जिसकी जिम्मेदारी स्वंय लेखक की है |
लेखक- डॉ राघवेंद्र शर्मा वरिष्ठ पत्रकार है।
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