–रमेश शर्मा-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी यात्रा आरंभ हो गई है । लगातार हमलों के बीच भी यदि संघ का स्वरूप निरंतर विस्तृत हुआ है तो उसका आधार संघ की समयानुकूल व्यवहारिक कार्यशैली है। संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब जी देवरस भी संघ की कार्यशैली में ऐसे ही व्यवहारिक विस्तार देने के लिये जाने जाते हैं। उनकी प्रत्येक भोपाल यात्रा से संघ कार्यकर्ताओं को नया उत्साह आया ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी ।लेकिन नियमित शाखाएँ लगभग डेढ़ वर्ष बाद आरंभ हुईं। देवरसजी संघ की प्रारंभिक शाखा के स्वयंसेवक बने । तब उनकी आयु मात्र ग्यारह वर्ष थी । इस शाखा का शुभारंभ संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी ने स्वयं किया था । स्वयंसेवकों के इस प्रथम शाखा में बालासाहब के साथ केशवराव वकील, त्र्यंबक झिलेदार, अल्हाड़ अंबेडकर, बापू रावदिवाकर, नरहरि पारखी, बाली यशकुण्यवर,, माधवराव मुले और एकनाथ रानाडे भी थे । बाला साहब बचपन से बहुत कुशाग्र और तीक्ष्ण बुद्धि थे । विषय को सुनकर प्रस्तुतिकरण करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी । इसलिये वे इस टोली के स्वभाविक समन्वयक के रूप में उभरे । डाॅक्टर जी स्वयं इस शाखा के शिक्षक और संचालक थे। इसलिए बालासाहब सहित इस पूरी टोली की संघ शिक्षा डॉक्टर जी के माध्यम से ही हुई । देवरस जी के विषय प्रस्तुतिकरण में भी डॉक्टरजी की झलक साफ होती थी । समय के साथ संघ की संकल्पना, शिक्षा, और डाक्टरजी के मार्गदर्शन से बालासाहब देवरस जी इतने प्रभावित हुये कि संघ को माध्यम बनाकर अपना पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति की सेवा में समर्पित कर दिया । देवरसजी ने संघ की स्थापना का उद्देश्य, कार्यशैली, सिद्धांत और व्यहवार सब डॉक्टर जी से ही समझा था । इसलिये देवरस जी के व्यवहार और प्रबोधन में डॉक्टरजी झलक सदैव मिलती थी । देवरसजी द्वारा प्रस्तुत विषयों में गहराई और व्यापकता कुछ ऐसी होती थी कि श्रोता वर्ग में संघ के स्वयं सेवक हों अथवा समाज के प्रबुद्ध जन, सभी एकाग्र होकर सुनते थे। देवरसजी एक प्रचारक से लेकर सरसंघचालक तक लगभग सभी दायित्वों पर रहे । और भारत के हर क्षेत्र की यात्रा की । उन्होंने 6 जून 1973 को सरसंघचालक के रूप में संघ प्रमुख का दायित्व संभाला था । 5 जून1973 को संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य ‘गुरुजी’ का निधन हुआ। देवरसजी तब आंध्रप्रदेश के प्रवास पर थे । तब उनके पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह का दायित्व था । उन्हें प.पू. गुरुजी के निधन सूचना मिली वे नागपुर पहुँचे। और गुरुजी की अंतिम इच्छा के अनुरूप देवरस जी ने “सरसंघचालक” का दायित्व संभाला। संघ की परंपरानुसार प.पू. गुरूजी संसार से विदा होने से पहले एक पत्र लिखकर देवरसजी को अपना उत्तराधिकार सौंप गये थे। वे लगभग दो दशक तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे । जब उन्होंने सरसंघचालक का पदभार संभाला तब उनकी आयु 58 वर्ष थी । मधुमेह रोग ने भी उन्हें प्रभावित कर लिया था । फिर भीषअपने शरीर और स्वास्थ्य की बिना परवाह किये उन्होंने देश व्यापी यात्रा की । उन्हीं दिनों भारत में मँहगाई विरोधी आँदोलन तेज हुआ । यह आँदोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हो रहा था । लेकिन व्यक्तिगत तौर हर क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता सहभागी हो रहे थे । आपातकाल के पूर्व के इन लगभग दो वर्षों में उन्होंने देशभर की व्यापक यात्रा की और समाज एवं राष्ट्रहित केलिये एकजुट होने का आव्हान किया । उनकी इन यात्राओं से समाज में संघ को लेकर वे भ्रांत धारणाएँ स्पष्ट होने लगी जो कतिपय संघ विरोधी शक्तियों ने फैला रखीं थीं। उनकी इन यात्राओं से एक ओर जहाँ संघ कार्यकर्ताओं में उत्साह आया वहीं समाज में विस्तार भी हुआ । संघ कार्यकर्ताओं का यह उत्साह मंहगाई विरोधी आँदोलन की ओर मुड़ गया । इस तथ्य से सरकार भी अवगत हो गई थी । आपातकाल लगने से पहले देवरस जी को आभास हो गया था कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी कोई कड़ा निर्णय ले सकतीं हैं। उन्होंने अपने आकलन से संघ के प्रमुख अधिकारियों को सावधान कर दिया था । यह देवरस जी की दूरदृष्टि थी की आपातकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगने और देशभर में लगभग एक लाख स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद भी संघ की सक्रियता बनी रही और आपातकाल हटने के तुरन्त बाद से संघ पुनः अपनी गति से काम करने लगा ।
कुछ परंपराओं को व्यवहारिक बनाया
बालासाहब देवरस जी ने संघ की कुछ परंपराओं को समयानुकूल व्यवहारिक बनाया । इसमें सबसे पहले था “परम पूज्यनीय” संबोधन । जब उन्हें “परम पूजनीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस” संबोधित किया गया तो उन्होंने स्पष्ट किया कि “परम् पूज्यनीय” संबोधन “सरसंघचालक” दायित्व के लिये हो व्यक्ति के लिये नहीं।
बालासाहेब देवरस ने बौद्धिक परंपरा को उभय पक्षीय बनाया । उन्होंने विभिन्न स्तरों पर कार्यकर्ताओं के साथ संवाद की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया । उनका मानना था कि यदि स्वयंसेवकों के मन में कोई प्रश्न उठ रहा है तो इसका समाधान होना चाहिए। इसलिये बौद्धिक समागम में शंका समाधान के लिये भी समय रहे ।
संघ में सरसंघचालक का दायित्व सौंपने की एक परंपरा थी । वर्तमान सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी का चयन करके एक पत्र लिखकर रख देते थे । जो उनके निधन के बाद खोला जाता था । डाॅक्टर जी के निधन के बाद उनका पत्र पढ़ा गया उसके अनुसार ही “गोलवलकर जी उपाख्य गुरुजी” को दायित्व सौंपा गया । और “गुरूजी” के पत्र के बाद यह दायित्व बालासाहब देवरस जी को मिला । लेकिन देवरस जी ने इस परंपरा में एक परिवर्तन किया । उन्होंने अपने जीवन काल में सरसंघचालक का दायित्व रज्जू भैया को सौंप दिया था । और रज्जू भैया ने भी इस परम्परा का पालन किया और अपने जीवनकाल में ही यह दायित्व सुदर्शन जी को सौंप दिया था । और सुदर्शन जी ने अपने जीवन काल में ही यह दायित्व वर्तमान सरसंघचालक डा मोहन भागवत जी सौंप दिया था ।
कुछ प्रमुख भोपाल यात्राएँ
अपनी देश व्यापी यात्राओं के क्रम में वे अनेक बार भोपाल आये । सरसंघचालक के रूप में भी और इससे पहले सरकार्यवाह एवं सहसरकार्यवाह के रूप में भी । उनके कुछ प्रमुख कार्यक्रमों एक आयोजन सरस्वती शिशु मंदिरों के विद्यार्थियों का समागम था । यह आयोजन तात्या टोपे नगर भोपाल के स्टेडियम में हुआ था । इसमें लगभग चार से अधिक बच्चे थे । नगर प्रबुद्ध जनों की संख्या भी बहुत अधिक थे । देवरसजी ने हिन्दुत्व और सामाजिक स्वरूप की व्याख्या की थी । उनके संबोधन में दो धाराएँ बहुत स्पष्ट थीं। उनका एक आव्हान बच्चों से था । देवरसजी आधुनिकता के समर्थक थे लेकिन अपने मूल एवं आत्म गौरव के साथ । उन्होंने उभरती पीढ़ी से सैद्धांतिक अडिगता के साथ समय के अनुरूप व्यवहारिक होने का संदेश दिया जबकि समाज के वरिष्ठ और प्रबुद्ध जनों से भ्रांत धारणाओं से मुक्त होकर आगामी पीढ़ी को समाज के मूल स्वरूप से परिचित कराने का आव्हान किया । हिन्दुत्व की व्याख्या में उनके उदाहरण इतने प्रभावशाली थे कि वे भोपाल के प्रबुद्ध जनों में विमर्श के विन्दु बने । उनकी एक अन्य भोपाल यात्रा वर्तमान भारत माता चौराहे के समीप भदभदा रोड पर भारतीय मजदूर संघ और विद्यार्थी परिषद भवन के भूमि पूजन में आये । इस आयोजन में भी इन दोनों संस्थाओं से सम्बद्ध कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त प्रबुद्ध जन भी आमंत्रित किये गये थे । सतह दृष्टि से देंखे तो मजदूर संघ और विद्यार्थी परिषद दो अलग धाराएँ हैं पर देवरस जी का संबोधन दोनों संस्थाओं के लिये प्रेरक रहा । वे अपनी एक यात्रा में उन्होंने पत्रकारों से पृथक से भी भेंट की थी । यद्यपि उनके सार्वजनिक आयोजनों में प्रबुद्ध जनों के साथ पत्रकार भी होते थे । कुछ पत्रकारों ने उनके साथ भोजन भी किया है । उनका तर्कशील प्रबोधन और विषय का प्रस्तुतिकरण सदैव प्रभावी रहता ।
संक्षिप्त जीवन परिचय
बालासाहब देवरस जी का पूरा नाम मधुकर दत्तात्रेय देवरस था लेकिन उन्हें बालासाहेब देवरस के नाम से जाना जाता है । उन्हें मध्यप्रदेश से बहुत लगाव था । परिवार यद्यपि आन्ध्रप्रदेश का मूल निवासी था । लेकिन पिता दत्तात्रेय जी शासकीय सेवा के चलते मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में रहे । बालासाहब का जन्म बालाघाट जिले के करंजा नामक स्थान पर अगहन् शुक्ल पक्ष की पंचमी संवत् 1971 को हुआ । अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार उनकी जन्मतिथि 11 दिसम्बर 1915 थी । इस वर्ष यह पंचमी तिथि 6 दिसम्बर को पड़ रही है । पिता दत्तात्रेय कृष्णराव देवरस और माता पार्वती बाई दोनों भारतीय परंपराओं और मान्यताओं के लिये समर्पित थे । उनके जन्म के साथ ही पिता का स्थानान्तर हुआ और परिवार नागपुर आ गया । बालासाहेब की शिक्षा नागपुर के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में हुई थी। उन्होंने 1931 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। नागपुर महाविद्यालय से वकालत पास की ।
वे बाल स्वयंसेवक थे । पढ़ाई पूरी करके संघ के प्रचारक बने । प्रचारक के रूप में संघ कार्य विस्तार केलिये उन्हे पहला दायित्व बंगाल का मिला ।1946 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के का सहसरकार्यवाह और 1965 सरकार्यवाह बने। 6 जून, 1973 को संघ के सरसंघचालक बने । उनके दायित्व संभालने के दो साल बाद ही देश में 25 जून 1975 को आपातकाल लागू हो गया 30 जून को देवरसजी गिरफ्तार कर लिये गये । उन्हें यरवदा जेल में रखा गया। 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा जो 1977 तक जारी रहा। 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ और देवरसजी सहित संघ के अन्य कार्यकर्त्ता रिहा हो सके । आपातकाल के दौरान देवरस जी 20 महीनों से भी अधिक समय तक जेल में रहे।
सरसंघचालक के रूप में उनके कार्यकाल में संघ पर दूसरी बार प्रतिबंध 1992 में लगा । तब अयोध्या में विवादास्पद बाबरी ढांचा ढहने के बाद 10 दिसंबर 1992 को नरसिम्हा राव सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगाया था जो छै माह तक लगा रहा था । बालासाहेब 1994 तक सरसंघचालक रहे । स्वास्थ्य की गिरावट के कारण उन्होंने पद छोड़ दिया और प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया को संघ का सरसंघचालक नियुक्त कर दिया था । 17 जून 1996 को देवरस जी ने देह त्यागकर संसार से विदा ले ली ।