भारत में मौत के कारख़ाने : हर दिन मुनाफ़े की भेंट चढ़ रहे हैं तीन मज़दूर

 

इंसान की जिंदगी को आसान बनाने वाली हमारे आस-पास दिखाई देने वाली सुख-सुविधाओं की तमाम चीज़ें मानव श्रम की पैदावार हैं। हम ये चीज़ें बाज़ार से ख़रीदते हैं और अधिकतर लोग इन्हें बनाने वाले और बाज़ार तक लाने वाले हाथों के बारे में नहीं जानते, क्योंकि बाज़ार की चमक-दमक अपने पीछे की उत्पादन प्रक्रिया का अंधेरा छिपा लेती है। हमारी ओर से सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक इस्तेमाल की जाने वाली ज़रूरत की सभी चीज़ें मज़दूरों के श्रम का उत्पादन हैं। एक वाक्य में कहना हो तो सुई से लेकर जहाज़ तक मज़दूर बनाते हैं। जिसे विकास का नाम दिया जाता है, वो मज़दूरों के श्रम की बदौलत है। लेकिन 12-14 घंटे रोज़ कमरतोड़ मेहनत करने वाले इन मज़दूरों को अपने हाथों पैदा की गई सुख-सुविधा की चीज़ें मिलना तो दूर की बात है, उन्हें तो कभी अपने किए गए श्रम की पूरी क़ीमत भी नहीं मिली, अगर कुछ मिला है तो मालिकों की गालियाँ, हादसों में जख़्मी होना और मरना।

एक रिपोर्ट के अनुसार, हर साल विश्व-भर में 3 लाख 50 हज़ार मौतें काम के दौरान होने वाले हादसों से होती हैं और 31 करोड़ 30 लाख लोग जख़्मी होते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, विश्व स्तर पर हादसों और बीमारियों की रोकथाम के लिए पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य पर किया जाने वाला ख़र्च बहुत ही नाममात्र का है। अगर भारत की बात करें तो हालत और भी बुरी है।

भारत में मोदी टोले ने मज़दूरों के अधिकार कुचलने और पूँजीपतियों को मज़दूरों की लूट में और अधिक खुली छूट देने के लिए पुराने 29 श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके कोड के रूप में चार नए श्रम क़ानून लाए गए हैं। ताकि उनके मुनाफ़ों के रास्ते की सभी रुकावटों को ख़त्म किया जा सके। इसलिए तर्क यह दिया गया कि “श्रम क़ानूनों का वर्तमान रूप विकास के रास्ते में रुकावट खड़ी कर रहा है, इसलिए सुधारों की ज़रूरत है।” और इनके लिए विकास का मतलब सिर्फ़ पूँजीपतियों का विकास ही है। मज़दूरों के वेतन बढ़ाने, उनका रोज़गार पक्का हो, उनके पास रहने के लिए अच्छा घर हो, उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, बीमारी के समय सही इलाज मिले आदि को विकास का पैमाना नहीं माना जाता। यहाँ आए दिन मज़दूरों के साथ हादसे होते रहते हैं, लेकिन सरकारें कभी भी दोषियों पर कार्रवाई नहीं करती हैं, ना ही हादसे रोकने के लिए कोई अन्य क़दम उठाती हैं। सबसे बुरी हालत औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों की है। पावर प्रेसों पर सेंसर ना लगे होने के कारण, खस्ताहाल मशीनों पर काम करते हुए, भट्ठियों पर काम करते हुए, मशीनों में करंट आने से, बिजली की खराब तरीके़ से की गई फि़टिंग, खस्ताहाल कारख़ानों की इमारतों के गिरने से, बॉयलर फटने से और अनेकों असुरक्षित हालतों के कारण मज़दूर रोज़ाना भयंकर हादसों के शिकार होते हैं। इन हादसों में मज़दूरों के हाथ-पैर कट जाना, आँखें खराब हो जाना, शरीर के अन्य हिस्सों में गंभीर चोटें लगने से लेकर उनकी जान तक चली जाती है।

सूचना अधिकार क़ानून के तहत प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार भारत में फ़ैक्टरियों में 2017 से 2020 तक हर रोज़ 3 मज़दूर हादसों के कारण मौत के मुँह में चले गए और 11 मज़दूर जख़्मी हुए हैं। ये आँकड़ें सिर्फ़ टाटा, मारूति सुजुकी, अशोक लेलैंड, टी.वी.एस., हांडा जैसी रजिस्टर्ड कंपनियों का हाल बयान करते हैं। जबकि भारत में 90 प्रतिशत मज़दूर गै़र-रस्मी क्षेत्र में काम करते हैं। रजिस्टर्ड फै़क्टरियों में एक हद तक मज़दूर पक्के होते हैं और उन्हें कुछ सुविधाएँ भी मिल जाती हैं, लेकिन फिर भी हादसों का खतरा बना रहता है, जिसका नतीजा ये मौतें हैं। गै़र-रस्मी क्षेत्र में जहाँ मज़दूरों के कोई अधिकार नहीं होते, वहाँ वे मालिकों या ठेकेदारों की रजा पर जीते हैं। जहाँ मालिक मज़दूरों को ना तो कोई पहचान पत्र देते हैं, ना ही हाज़िरी कार्ड और ना ही वर्दी। यानी वो मज़दूर को ऐसा कोई सबूत नहीं देते, जिससे यह साबित हो सके कि मज़दूर उसकी फै़क्टरी में काम करता है। इस बात का मालिक बहुत ही नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं। छोटी फै़क्टरियों में तो यह आम रिवाज़ है कि कई-कई महीने काम करवा के अक्सर मालिक मज़दूरों को बिना वेतन दिए ही कारख़ाने में से निकाल देते हैं। ऐसा होने पर अगर मज़दूर लेबर कोर्ट जाना चाहे, तो उसके पास ऐसा कोई सबूत ही नहीं होता, जिससे वो यह साबित कर सके कि वो किस फै़क्टरी में काम करता था। अदालत जाने से भी बहुत कम मज़दूरों को ही फ़ायदा होता है। मामले अक्सर कई-कई साल चलते हैं, जिनमें तारीख़ पड़ने पर मज़दूर को अपनी दिहाड़ी तोड़नी पड़ती है। बहुत से मामलों में तो जितने पैसे उन्हें केस लड़कर मिलते हैं, उतना तो मज़दूरों का पहले ही नुक़सान हो जाता है। इसलिए ज़्यादातर मज़दूर कोर्ट जाते ही नहीं। कोई हादसा होने पर पूँजीपति सरकार, पुलिस, प्रशासन, श्रम अधिकारियों की मदद से मामले रफ़ा-दफ़ा कर देते हैं। ऐसे मामले में कार्रवाई होनी और मुआवज़ा मिलना तभी संभव होता है, अगर मज़दूर एकजुट होकर संघर्ष करें।

करोड़ों का कारोबार करने वाले और बेहिसाब मुनाफ़ा लूटने वाले पूँजीपति अपनी अय्याशी पर पानी की तरह पैसा बहाते हैं, लेकिन मज़दूरों की ज़िंदगी बचाने के लिए हादसों से सुरक्षा के प्रबंध करने के लिए दुव्वनी भी ख़र्च करने को राज़ी नहीं होते, क्योंकि इनके लिए मज़दूर इंसान नहीं, बल्कि मशीनों के पुर्ज़े हैं, जो उनके मुनाफ़े का साधन हैं। मालिकों की नज़र में मज़दूर की हैसियत इससे अधिक कुछ भी नहीं है। मज़दूरों के जागे बिना, एकजुट हुए बिना उनकी ज़िंदगी नहीं बदलने वाली।

– गगनदीप कौर

मुक्ति संग्राम –  28 ♦ मार्च 2023 में प्रकाशित

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