नई दिल्ली,सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा बच्चों के हितों की दुहाई देते हुए समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता का विरोध किये जाने पर कहा कि भारतीय कानून किसी एक व्यक्ति को वैवाहिक स्थिति के बावजूद बच्चे को गोद लेने की इजाजत देते हैं।
कोर्ट ने कहा कि कानून मानता है कि अपना बच्चा रखने के आदर्श परिवार के अलावा भी स्थिति हो सकती है।
बुधवार को हुई नौवें दिन की सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ आजकल समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता की मांग पर सुनवाई कर रही है। बुधवार को नौवें दिन की सुनवाई में एनसीपीसीआर की ओर से एएसजी एश्वर्या भाटी ने पक्ष रखा। भाटी ने कहा कि बच्चों का कल्याण सर्वोपरि है। हमारे कानूनों की संरचना विपरीत लिंगीय जोड़ों से पैदा होने वाले बच्चों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए की गई है।
बच्चा गोद लेने की संस्था कारा के नियम कानूनों का दिया हवाला
लिंग की अवधारणा अस्थिर हो सकती है लेकिन मां और मातृत्व नहीं। भाटी ने अपनी दलीलों के समर्थन में मां और बच्चों को संरक्षण देने वाले विभिन्न कानूनों और बच्चा गोद लेने की संस्था कारा के नियम कानूनों का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि सारे कानून विपरीत लिंगीय शादी की अवधारणा पर आधारित हैं। बच्चा गोद लेने के नियमों में भी दो वर्ष की स्थाई शादी की रिलेशनशिप होने की शर्त है।
भाटी ने कहा कि बच्चा गोद देने के नियम कानून काफी समग्र हैं। उन्होंने बच्चा गोद देने की मौजूदा स्थिति बताते हुए कहा कि करीब 30 हजार परिवार पंजीकृत हैं जो बच्चा गोद लेने की पात्रता रखते हैं जबकि गोद देने के लिए लीगली फ्री बच्चों की संख्या करीब 1500 है। ऐसा इसलिए है कि गोद दिए जाने वाला बच्चा कानूनी तौर पर पूरी तरह गोद देने के लिए फ्री होना चाहिए।
जैविक जन्म की कोई बाध्यता नहीं
बच्चे के गोद लेने के नियमों पर सुनवाई कर रही पीठ की अगुवाई कर रहे प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हमारे कानूनों में अकेला व्यक्ति भी बच्चा गोद ले सकता है। वह व्यक्ति सिंगल रिलेशनशिप में हो सकता है। यहां तक कि जैविक रूप से बच्चा पैदा करने में सक्षम व्यक्ति भी बच्चा गोद ले सकता है। जैविक जन्म की कोई बाध्यता नहीं है। भाटी ने कहा लेकिन कानून में एकल व्यक्ति में पुरुष और महिला के बच्चा गोद लेने के बारे में अलग-अलग नियम हैं। वे जोड़े के रूप में बच्चा गोद नहीं ले सकते। जोड़े में विपरीत लिंगीय शादीशुदा व्यक्ति बच्चा गोद ले सकता है।
क्या लखा पीठ ने
पीठ ने कहा कि कानून मानता है कि अपना बच्चा रखने के आदर्श परिवार के अलावा भी स्थिति हो सकती है। बच्चे के पालन-पोषण में माता-पिता दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होने की भाटी की दलील पर पीठ ने कहा कि तब क्या होगा जब विपरीत लिंगीय शादी में एक साथी की मृत्यु हो जाती है। पीठ ने कहा कि कई बार सिंगल पैरेंट भी बच्चे को पालते हैं।केंद्र सरकार की ओर से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता और कनु अग्रवाल पेश हुए।
मेहता ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता का विरोध करते हुए कहा कि मंगलवार को हुई सुनवाई में ऐसा इशारा दिखा जैसे कि कोर्ट शादी की मान्यता से कुछ कम लेकिन मौजूदा स्थिति से कुछ ज्यादा की घोषणा कर सकता है। मेहता ने कहा कि कोर्ट जो भी आदेश देगा वह पूरे देश पर बाध्यकारी होगा। उन लोगों पर भी बाध्यकारी होगा जो कोर्ट के समक्ष नहीं हैं।
कोर्ट घोषणा कर देगा लेकिन उसके परिणामी स्थिति और नियमों की रूपरेखा तय नहीं करेगा। ऐसे में एक स्थिति की कल्पना कीजिए कि अगर कोई व्यक्ति पूजा कराने के लिए किसी पुजारी के पास जाता है और पुजारी कह देता है कि मेरे धर्म के अनुसार सिर्फ पुरुष और महिला ही यह अनुष्ठान कर सकते हैं और वो इसे नहीं कराएगा तो क्या वह पुजारी कोर्ट की अवमानना का भागी नहीं होगा।
पीठ के न्यायाधीश एस. रविन्द्र भट ने कहा
इस दलील पर पीठ के न्यायाधीश एस. रविन्द्र भट ने कहा कि अपने विवेक और आस्था का पालन करना उस पुजारी का मौलिक अधिकार है। मेहता ने कहा लेकिन कहां पर आकर विवेक रुकता है और कहां से कर्तव्य शुरू होता है यह भी एक सवाल है। जस्टिस भट ने कहा कि आप यह मान कर चल रहे हैं कि कोर्ट रिट आदेश देगा। ऐसा रिट आदेश देगा या वैसा रिट आदेश देगा। हम इसी के आदी हैं। उन्होंने कहा कि वह जिस ओर संकेत कर रहे हैं वह संवैधानिक अदालत के रूप में है। हम मामलों की स्थिति पहचान कर वहां सीमा तय करते हैं।
इस संवेदनशील मुद्दे पर आगे चर्चा की गुंजाइश खत्म हो जाएगी
मेहता ने समलैंगिक विवाह को मान्यता के बारे में कोर्ट से आदेश न देने का अनुरोध जारी रखते हुए कहा कि विधायिका जब भी कोई घोषणा करती है तो उसके पास उसके परिणामों से निबटने की भी शक्ति होती है। लेकिन कोर्ट घोषणा के बाद उसके परिणामों से निबटने में समर्थ नहीं होगा।
इस संबंध में कोर्ट के घोषणा करने से इस संवेदनशील मुद्दे पर आगे चर्चा की गुंजाइश खत्म हो जाएगी। केंद्र ने विधायिका पर यह मसला छोड़े जाने का अनुरोध किया। बुधवार को और बहुत से पक्षकारों ने भी दलीलें रखीं।
अखिल भारतीय संत समिति की ओर से पेश वकील अतुलेश कुमार ने कहा
जमीयत उलेमा ए हिंद की ओर से पेश वकील एमआर शमशाद ने कहा कि समलैंगिक शादी को मान्यता देने से बहुत सी संस्थाओं को दिक्कत होगी। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे हज कमेटी को क्योंकि मान्यता के बाद ऐसे जोड़े हज जाने की मांग कर सकते हैं जबकि वहां अलग-अलग श्रेणियां होती हैं। और भी संस्थाओं के साथ ऐसी दिक्कत आ सकती है।
अखिल भारतीय संत समिति की ओर से पेश वकील अतुलेश कुमार ने कहा कि कोर्ट कह रहा है कि वह पर्सनल ला पर विचार नहीं करेगा लेकिन अगर कोर्ट विशेष विवाह अधिनियम में भी समलैंगिक शादी को मान्यता देता है तो उसका प्रभाव हिन्दू मैरिज एक्ट और अन्य कानूनों पर पड़ेगा। बहस गुरुवार को भी जारी रहेगी।