भारत में कोरोना वायरस के मामले कुछ कम होने शुरू ही हुए थे कि अब लोगों पर कई तरह के फ़ंगल इंफ़ेक्शन का ख़तरा मंडराने लगा है.
पहले तो ब्लैक फ़ंगस और व्हाइट फ़ंगस के मामले ही सामने आए थे लेकिन सोमवार को यलो फ़ंगस का एक मामला आने के बाद लोगों में डर और बढ़ गया है.बी बी सी हिंदी की रिपोर्ट अनुसार
उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद में हर्ष ईएनटी अस्पताल में एक ऐसा मामला सामने आया जिसमें तीन तरह के फ़ंगल इंफ़ेक्शन पाए गए, ब्लैक फ़ंगस, व्हाइट फ़ंगस और यलो फ़ंगस.
हर्ष ईएनटी के प्रमुख डॉ. बीपीएस त्यागी बताते हैं कि ये अपनी तरह का बहुत दुर्लभ मामला है. उनके पास आए 59 साल के मरीज़ की जब जाँच की गई तो उसमें यलो फ़ंगस मिला जिसे मेडिकल भाषा में म्यूकर सेप्टिकस कहते हैं.
डॉक्टर बीपीएस त्यागी बताते हैं, “ये फ़ंगस अमूमन रेप्टाइल्स यानि रेंगने वाले जानवरों में पाया जाता है. जितना मैंने पढ़ा और दूसरे डॉक्टर्स से बात की तो ये अपनी तरह का पहला मामला है. इस मरीज़ में ब्लैक और व्हाइट फ़ंगस भी पाये गए हैं.”
संजय नगर निवासी इस मरीज़ को कोरोना संक्रमण हुआ था पर वो ऑक्सीजन पर नहीं थे. लेकिन उन्हें फेफड़ों के संक्रमण के कारण स्टेरॉइड दिए गए थे. उन्हें डायबिटीज़ भी है.
डॉक्टर त्यागी ने बताया, “मरीज़ को 8-10 दिनों से कमज़ोरी थी. हल्का बुख़ार था, भूख कम लग रही थी, नाक से काला-लाल रिसाव हो रहा था और नाक के आसपास सेंसेशन कम थी. उनकी एंडोस्पॉकी में ये फ़ंगल इंफ़ेक्शन पकड़ में आए. इसके बाद उनका तुरंत ऑपरेशन किया गया.”
”इस फ़ंगल इंफ़ेक्शन को म्यूकरमाइकोसिस की श्रेणी का कह सकते हैं. म्यूकरमाइकोसिस में जो म्यूकोरेल्स (फ़ंगस) होते हैं वो कई बार इस तरह का रंग ले लेते हैं.”
रंग नहीं फ़ंगस का प्रकार है ज़रूरी
इससे पहले ब्लैक फ़ंगस और व्हाइट फ़ंगस के मामले सामने आ चुके हैं.
कुछ राज्यों में कोरोना के मामले कम होने ही लगे थे कि ब्लैक फ़ंगस ने ज़ोर पकड़ लिया. इसे म्यूकरमायकोसिस भी कहते हैं. कोरोना के कई मरीज़ों में इसकी शिकायत आने लगी.
पहले गुजरात, महाराष्ट्र और फिर कर्नाटक, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी ब्लैक फ़ंगस ज़ोर दिखाने लगा. अस्पतालों में अलग से म्यूकरमायकोसिस वॉर्ड बनाने पड़े.
इसके बाद बिहार में चार व्हाइट फ़ंगस के मामले सामने आ गए. फिर कुछ मामले उत्तर प्रदेश से भी आए.
इन तीनों फ़ंगल इंफ़ेक्शन को लेकर लोगों में डर बना हुआ है. लेकिन डरने से बेहतर है कि आप इन फ़ंगल इंफ़ेक्शन के बारे में जाने और ख़ुद को उनसे बचाएं.
इस संबंध में दिल्ली एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने भी स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रेस कांफ्रेंस में जानकारी दी. उन्होंने सबसे पहले इस बात पर ज़ोर दिया कि फ़ंगल इंफ़ेक्शन को रंग के नाम से नहीं बल्कि उसके मेडिकल नाम से पुकारना चाहिए वरना इससे भ्रम फैल सकता है.
उन्होंने कहा, “फ़ंगल इंफ़ेक्शन के लिए कई शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं ब्लैक फ़ंगस, व्हाइट फ़ंगस, येलो फ़ंगस. ये समझना ज़रूरी है कि कई शब्द भ्रामक हैं जिनसे उलझन हो जाती है. फ़ंगस अलग-अलग अंगों पर अलग रंग का हो सकता है लेकिन हम एक ही फ़ंगस को अलग-अलग नाम दे देते हैं.”
“जिनकी इम्यूनिटी कम होती है उनमें हम ज़्यादातर ये तीन इंफ़ेक्शन दिखते हैं- म्यूकरमायकोसिस, कैनडीडा या एसपरजिलस फ़ंगल इंफ़ेक्शन है. म्यूकरमाइकोसिस के सबसे ज़्यादा मामले हैं. ये वातावरण में पाया जाता है. ये संक्रामक नहीं है. ये 92-95 प्रतिशत उन मरीज़ों में मिला है जिन्हें डायबिटीज़ है या जिनके इलाज में स्टेरॉइड का इस्तेमाल हुआ है.”
गुरुग्राम में फ़ोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट में हेमाटोलॉजी के प्रिंसिपल डायरेक्टर डॉक्टर राहुल भार्गव भी बीमारी को रंग के आधार पर नाम देने को ग़लत बताते हैं.
डॉक्टर राहुल ने बताया, “फ़ंगस का अंदरूनी कोई रंग नहीं होता. म्यूकर ग्रुप की फ़ंगस राइज़ोपस जब शरीर में सेल्स को मारती है तो उन पर अपने काले रंग की कैप छोड़ जाती है क्योंकि वो मरे हुए सेल होते हैं.”
“इस फ़ंगस को जब मुंह, नाक से निकालकर माइक्रोस्कोप में देखा गया तो उसके किनारों पर फ़ंगस दिखी और बीच में मरे हुए सेल दिखे. राइज़ोपस फ़ंगस का तब से नाम ब्लैक फ़ंगस पड़ गया. ये म्यूकरमायकोसिस का ही एक प्रकार है.”
व्हाइट फ़ंगस को लेकर डॉक्टर राहुल बताते हैं, “कैंडिडा शरीर पर सफ़ेद दही की तरह दिखती है. इसलिए उसका नाम व्हाइट फ़ंगस पड़ गया. एक तीसरी फ़ंगस होती है एसपरजिलस. ये कई तरह की होती है. ये शरीर पर काली, नीली हरी, पीली हरी और भूरे रंग की पाई जाती है. मीडिया में जो नाम चल रहे हैं वो फ़ंगस के शरीर पर दिख रहे रंग के हिसाब से रखे गए हैं. लेकिन, इसका इलाज तभी हो सकता है जब उस फ़ंगस की सही प्रजाति का पता चलता है.”
क्या है फ़ंगल इंफ़ेक्शन की वजह
सभी तरह की फ़ंगस में एक बात समान पाई जाती है और वो है प्रतिरक्षा तंत्र के कमज़ोर पड़ने पर फ़ंगल इंफ़ेक्शन शरीर पर हमला कर देता है.
डॉक्टर्स का कहना है कि स्वस्थ और अच्छी इम्युनिटी वाले लोगों में फ़ंगल इंफ़ेक्शन नहीं होता. फ़ंगस वातावरण में ही मौजूद होती है लेकिन फ़ंगल इंफ़ेक्शन होने के बहुत ही कम मामले सामने आते हैं.
साकेत के मैक्स अस्पताल में इंटरनल मेडिसिन के डायरेक्टर डॉक्टर रोमेल टिक्कू ने बताया कि किस तरह के लोगों में फ़ंगल इंफ़ेक्शन का ख़तरा होता है-
मौजूदा समय में मामले बढ़ने की एक बड़ी वजह कोरोना वायरस संक्रमण है. म्यूकरमायकोसिस के सबसे ज़्यादा मामले कोरोना के मरीज़ों में सामने आ रहे हैं, चाहे वो ठीक हो चुके हों या नहीं.
जिन मरीज़ों को डायबिटीज़ है और इलाज के लिए स्टेरॉइड दिए गए हैं उन्हें इसका सबसे ज़्यादा ख़तरा है. लेकिन, बिना डायबिटिक कोरोना मरीज़ों को भी अगर स्टेरॉइड दिए गए हैं तो उनमें भी म्यूकरमायकोसिस हुआ है.
फ़ंगल इंफ़ेक्शन का ख़तरा उनमें भी है जिनका कोई ट्रांसप्लांट किया गया है. इसके अलावा कैंसर के मरीज़ जिनकी कीमोथेरेपी चल रही हो या जो डायलिसिस पर हों, इन सभी की इम्यूनिटी कमज़ोर होती है.
स्टेरॉइड्स के इस्तेमाल से कोविड-19 में फेफड़ों में सूजन को कम किया जाता है. वहीं, जब शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रणाली (इम्यून सिस्टम) कोरोना वायरस से लड़ने के लिए अति-सक्रिय हो जाती है तब भी स्टेरॉइड शरीर को नुक़सान होने से रोकने में मदद करते हैं.
ये इम्युनिटी को कमज़ोर करते हैं और डायबिटीज़ या बिना डायबिटीज़ वाले मरीज़ों में शुगर का स्तर बढ़ा देते हैं जिससे फ़ंगल इंफ़ेक्शन हो सकता है.
फ़ंगल इंफ़ेक्शन के शरीर पर अलग-अलग प्रभाव होते हैं. इनके इलाज के लिए ज़रूरी है कि समय पर इनकी पहचान हो जाए. इसके लिए इनके लक्षणों के समझना ज़रूरी है.
अलग-अलग डॉक्टर्स से बातचीत के आधार पर मौजूदा समय में पाए जा रहे फ़ंगल इंफ़ेक्शन के लक्षणों के बारे में यहां बताया गया है.
म्यूकरमायकोसिस यानी ब्लैक फ़ंगस
म्यूकरमायकोसिस म्यूकर या रेसजोपस फ़ंगस के कारण होता है जो आमतौर पर मिट्टी, पौधों, खाद, सड़े हुए फल और सब्ज़ियों में पनपता है.
ये फ़ंगस साइनस, दिमाग़ और फेफड़ों को प्रभावित करती है और बहुत कम मामलों में गेस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक (इसमें पाचन तंत्र के सभी अंग शामिल होते हैं) में भी पाई जा सकती है.
इसमें ऑपरेशन की भी ज़रूरत पड़ सकती है. कई मामलों में देर हो जाने पर इंफ़ेक्शन रोकने के लिए आंख या जबड़ा भी निकालना पड़ता है.
डॉक्टर्स के मुताबिक़, अगर ये इंफ़ेक्शन फेफड़ों या गेस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक में होता है तो ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि इसके लक्षण देर से सामने आते हैं. म्यूकरमायकोसिस में मृत्यु दर 50 प्रतिशत तक होती है.
इसके लक्षण हैं- नाक बंद हो जाना, नाक से ख़ून या काला तरल पदार्थ निकलना, सिरदर्द, आंखों में सूजन और दर्द, पलकों का गिरना, धुंधला दिखना और आख़िर में अंधापन होना. नाक के आसपास काले धब्बे हो सकते हैं और सेंसशन कम हो सकता है. जब फेफड़ों में इसका इंफ़ेक्शन होता है तो सीने में दर्द और सांस लेने में परेशानी जैसे लक्षण होते हैं.
म्यूकर सेप्टिकस
ये म्यूकरमायकोसिस का ही एक प्रकार है. म्यूकरमायकोसिस कई तरह के होते हैं. इसमें बुख़ार, नाक से लाल या काले रंग का रिसाव, कमज़ोरी और नाक के आसपास सेंसेशन कम होना जैसे लक्षण आते हैं.
कैनडिडा यानी व्हाइट फ़ंगस
कमज़ोर इम्यूनिटी वाले, डायबिटिक या बिना डायबिटिक और आईसीयू में लंबे समय तक रहे मरीज़ों में इसका ख़तरा होता है.
इसमें सफ़ेद पैच आ जाते हैं. जीभ पर सफ़ेद दाग दिखने लगते हैं. किडनी और फेफड़ों में ये इंफ़ेक्शन हो सकता है. ये म्यूकरमायकोसिस जितना ख़तरनाक नहीं होता. इसमें मृत्युदर 10 प्रतिशत के क़रीब है. ये तभी ख़तरनाक होता है अगर इंफ़ेक्शन ख़ून में आ जाए.
एसपरजिलस फ़ंगल इंफ़ेक्शन
ये भी कोरोना के मरीज़ों में देखा गया है. हालांकि, मामले बहुत ही कम हैं. ये भी फेफड़ों को प्रभावित कर सकता है. इसमें फेफड़ों में कैविटी बन जाती है.
ये ज़्यादातर उनमें होता है जिन्हें पहले से कोई एलर्जी हो. इसमें भी अगर निमोनिया हो जाए या फ़ंगल बॉल बन जाए तो ये ख़तरनाक हो सकता है.
कैसे हो बचाव
इन सभी फ़ंगल इंफ़ेक्शन से बचने के लिए ज़रूरी है कि साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखा जाए. कोरोना से ठीक होने के बाद मरीज़ धूल-मिट्टी वाली जगहों पर जाने से बचें.
एम्स के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने बताया कि साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है. जैसे हाथ धोना, ऑक्सीजन की ट्यूब साफ़ रखना, ऑक्सीजन सपोर्ट के लिए इस्तेमाल होने वाला पानी स्टेरलाइज्ड हो तो बेहतर है.
डॉक्टर राहुल भार्गव कहते हैं कि आगे इलाज में ध्यान रखा जाएगा कि कोरोना का इलाज करा रहे मरीज़ों में शुगर लेवल को नियंत्रित रखा जाए और स्टेरॉइड का इस्तेमाल संभलकर हो. जो लोग कोरोना का इलाज करा रहे हैं, जिनमें कोरोना ठीक हो चुका है या जिनकी इम्युनिटी किसी अन्य बीमारी के कारण कमज़ोर है, वो फ़ंगल इंफ़ेक्शन के लक्षण दिखते ही अपने डॉक्टर से संपर्क करें.
फ़िलहाल देश में म्यूकरमायकोसिस के नौ हज़ार से ज़्यादा मामले सामने आ चुके हैं लेकिन कैडिडा और एसपरजिलस के मामले बहुत कम है