प्लास्टिक की पन्नी और मन्नत : हिंदु संस्कृति की परंपरा में विकृति

मनोज_जोशी::

पिछले सप्ताह संयोग से चैत्र शुक्ल अष्टमी पर यानी बुधवार को कर्फ्यू वाली माता के मंदिर में दर्शन के लिए परिवार के साथ पहुंच गया। बिना किसी योजना के ऐसे पहुंचा जैसे स्वयं माता ने बुलाया हो। और यहाँ शेर के पाँव में बड़ी संख्या में पन्नी बंधी हुईं दिखी। याद आया कि कुछ दिन पहले ही Dainik Bhaskar में खबर छपी थी कि मन्नत के लिए यहाँ लोग शेर के पाँव में प्लास्टिक की पन्नी बांध रहे हैं। कलावा और चुनरी बांधना तो सुना था, प्लास्टिक की पन्नी की बात पहली बार सुनी तो अजीब सा लगा। और फिर उस दिन देख लिया तो मन खिन्न हो गया।
आखिर पन्नी बांधने की परंपरा कहाँ से आ गई।
मुझे अपने बचपन की दो घटनाएं याद आ गईं।
1.घर के पास कालीजी का मंदिर था और उसी में हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित हो गई थी। कई मित्र खास तौर से गणित की परीक्षा वाले दिन हनुमान जी के दर्शन करने जाते और उनसे परीक्षा में पास कराने की प्रार्थना करते। अपने राम को कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई। बाद के वर्षों में उस मंदिर में और शहर के दूसरे हनुमान मंदिरों में चिट्ठियां चिपकने लगीं।
यह चिट्ठी परिणाम को कितना प्रभावित करती है पता नहीं … लेकिन भक्त और भगवान के रिश्ते में भावनात्मक लगाव इतना होता है कि इस चिट्ठी को आस्था और विश्वास का प्रकटीकरण मानकर स्वीकार कर लिया।
और फिर इसमें कोई बुराई भी नहीं। भक्त अपने ढंग से अपने मन की बात भगवान से कहा रहा है। कई बार तो यह चिट्ठियां बहुत मार्मिक भी होती हैं।

2. यह किस्सा बिल्कुल प्लास्टिक की पन्नी जैसा ही है। घर पर माँ के स्पष्ट निर्देश थे कि भगवान को चीनी के बर्तन में भोग नहीं लगेगा। वो कहती थीं चीनी का बर्तन शुद्ध नहीं है, भगवान उसके भोग को स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन बचपना तो बचपना होता है, जैसा कहा वैसा मान लिया तो काहे के बच्चे। अपने राम ने एक दिन पूजा की और चीनी की प्लेट में भोग लगा दिया। पता नहीं क्या हुआ वह चीनी की प्लेट नीचे गिर कर टूट गई और भोग सामग्री जमीन पर फैल गई। उस घटना से यह बात मन में कहीं बैठ गई कि वाकई चीनी के बर्तन में भगवान भोग स्वीकार नहीं करते।
अब वापस पन्नी वाली बात पर आता हूँ।‌ यह तो हम सब जानते हैं कि प्लास्टिक पर्यावरण के लिए घातक है। और जो पर्यावरण के लिए घातक है उसे ईश्वर कैसे स्वीकार करेंगे ? हम तो हिंदु संस्कृति के वाहक हैं। प्रकृति के हर अंग पेड़ पौधे पशु पक्षी सब में देवताओं का वास मानने वाला हिंदु समाज उस पॉलिथीन को बांध कर मन्नत मांग रहा है जिसके खाने से गौ माता बीमार पड़ रहीं हैं। गौ माता में तो सभी देवताओं का वास हैं। और केवल गौ माता क्यों भगवान विष्णु के दशावतार का ध्यान कीजिए मछली से लेकर मानव तक सब में विष्णु अवतार का अंश मौजूद हैं।
आखिर इसका आधार क्या है? और दुख का विषय यह है कि यह उस मंदिर में हो रहा है जिसकी स्थापना के लिए हमारी पुरानी पीढ़ी ने संघर्ष किया, कर्फ्यू लगा इसीलिए तो कर्फ्यू वाली माता का मंदिर नाम प्रचलित हुआ।
और मंदिर की स्थापना क्यों होती है ? संस्कृति की रक्षा के लिए ही ना ? फिर यह पन्नी बांध कर क्या हम रक्षा कर रहे हैं? इस पर विचार नितांत आवश्यक है।
हिंदु religion नहीं संस्कृति है, जीवनशैली है। यह परिवर्तनशील है इसीलिए युगों तक अक्षुण्ण है। इसकी अक्षुण्णता को बनाए रखने के लिए विकृतियों को भी रोकना होगा।

एक गीत जिसने १९८० के दशक के अंतिम वर्षों में मुझे प्रेरणा दी उसके बोल थे
“रुढ़ियों को तोड़ दो, परंपराएं मोड़ दो
जिसमें देश का भला न हो
वो हर काम छोड़ दो”
मुझे लगता है इसमें एक बात और जोड़ना पड़ेगी
“विकृतियों को रोक दो”

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