निजी स्कूलों में सारी कक्षाएं आनलाइन लगाई जा रही है और इस वर्ष भी जब तक बच्चों के टीके नहीं आ जाते, स्कूल चालू होना मुश्किल लग रहा है.
दूसरी तरफ सरकार बच्चों को कोरोना की तीसरी लहर से बचाने का प्रयास कर रही है और ऐसे में मानवता का तकाज़ा ये कहता है कि स्कूल फीस में राहत दी जावे.
शिक्षा के क्षेत्र में खासकर स्कूल एवं कालेज का गठन सिर्फ और सिर्फ करमुक्त समाज सेवी संस्थान द्वारा ही किया जा सकता है, इन पर किसी भी प्रकार का आयकर और जीएसटी नहीं लगता.
कहने का मतलब साफ है कि स्कूली और डिग्री शिक्षा देने वाली संस्थाएँ जिनको शिक्षा मंडल या विश्वविद्यालय या सरकारी विभाग से मान्यता प्राप्त है, वे व्यवसायिक संस्थान के रूप में काम नहीं कर सकते, उन्हें सामाजिक संस्थान होना जरूरी है, जो कर से मुक्त हैं.
करमुक्त रखने का उद्देश्य साफ था कि इन संस्थाओं में सेवा की भावना बनी रहे और मुनाफाखोरी से दूर रहें.
लेकिन जितने भी बढ़े स्कूल है, जहाँ पर 1000 से ज्यादा बच्चे अध्ययनरत है- उनके वित्तीय पत्रक देखेंगे तो आप पाएंगे कि करोड़ों रुपये का सरप्लस फंड हर साल पैदा होता है और बैंकों एवं अन्य संस्थानों में निवेश के रूप में पड़ा है, जिस पर अच्छी खासी मात्रा में ब्याज कमाया जा रहा है.
हमारा इस कमाई से कोई विरोध नहीं है और देश की आजादी के बाद से आप कमा रहे हैं, लेकिन आज जब सौ सालों में एक बार आने वाला ऐसा कठिन समय आया है तो आप अपनी जिम्मेदारी से कैसे मूंह मोड़ सकते हैं.
यदि आप समाज को राहत नहीं दे सकते तो सामाजिक संस्था का क्या काम?
यदि आप 3 वर्ष बिना मुनाफे के काम नहीं कर सकते तो समाज सेवा का ढकोसला क्यों?
*सरकार तुरंत प्रभाव से बड़ी निजी स्कूलों को कर के दायरे में लाए ताकि समाज सेवा को ढोंग बंद हो और अभिभावक कोई भी राहत की अपेक्षा रखना बंद करें.*
*उसे यह बात साफ तौर पर पता हो कि निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना, उसकी जरूरत और मजबूरी है क्योंकि सरकारी स्कूलों के हाल सरकार सुधारती नहीं और निजी स्कूलों की मनमानी को रोकती नहीं.*
*लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर