क्या वाकई बढ़ते चुनाव खर्च ने राजनीति को भ्रष्टाचार का पर्याय बना दिया है?

 

कह तो सही रहे हैं..
क्या वाकई बढ़ते चुनाव खर्च ने राजनीति को भ्रष्टाचार का पर्याय बना दिया है?

और भी कारण कारण हो सकते हैं, परंतु अब तो आरएसएस यानी संघ भी कह रहा है कि हमारी नौकरशाही भ्रष्टाचार के नित नए आयाम खड़े कर रही है। क्या पटवारी, क्या बाबू, क्या अफ़सर, जिसके यहाँ छापे पड़ते हैं, करोड़ों-अरबों के मालिक के रूप में सामने आता है। लेकिन अब हम इन घोटालों, इन भ्रष्टाचारी अफ़सरों से ऊब चुके हैं।
संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय हौसबोले कहते हैं, हम इन कपटी, हिसाबी- किताबी तरीक़ों से बुरी तरह थक और उकता चुके हैं जिनमें हमारे छोटे से लेकर शीर्ष अफ़सर और कुछ नेता, यहाँ तक कि राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टियाँ तक निष्णांत हैं। हमारे अफ़सर युवाओं को हतोत्साहित कर रहे हैं और ऐसा करना वे अपनी शान समझते हैं। उनका कहना है कि बड़े-बड़े उद्योगपति करोड़ों-अरबों का लोन लेकर रफ़ूचक्कर हो जाते हैं और हमारे युवाओं को पाँच-दस लाख के लोन के लिए अफ़सर मंजूरी नहीं देते। बैंक नखरे करते रहते हैं जबकि ये युवा इसके हर हाल में हक़दार भी हैं और सही मायने में छोटे-छोटे स्टार्टप्स शुरू करना चाहते हैं। जिनके पास दो जून की रोटी के अलावा कोई इंतज़ाम ही नहीं है और गज़़ब का हुनर रखते हैं, ऐसे युवा आखिेर अपने हुनर को पंख देने के लिए कहाँ जाएँ?
बात में दम तो है। अफ़सर फ़ाइलें लटकाते रहते हैं और बैंकों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। दिल्ली से लेकर भोपाल तक एमएसएमई को लेकर तमाम ढोल पीटे जाते हैं। सरकारें योजनाएं बना कर थक जाती हैं, उद्योगों के लिए जमीनें आरक्षित कर दी गईं, लेकिन असलियत यह है कि एक-दो प्रतिशत से ज्यादा सफलता कहीं दिखाई ही नहीं देती। कहावत ही बन गई है-बिना जुगाड़ के कुछ नहीं हो सकता। संघ के इतने बड़े पदाधिकारी एक तरफ यह बोल रहे हैं तो दूसरी ओर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मंगलवार को संसद में जानकारी देती हैं कि बैंकों ने पिछले पांच वित्तीय वर्षों के दौरान 10,09,511 करोड़ रुपये के खराब ऋण यानी एनपीए को राइट ऑफ कर दिया है। गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए), खातों के संबंध में जवाब देते हुए कहा कि यह कदम एनपीए के रूप में उनके चार साल पूरे होने के बाद उठाया गया है।
राइट-ऑफ के बाद उक्त राशि को संबंधित बैंक की बैलेंस शीट से हटा दिया गया है। राइट ऑफ करने या बट्टा खाते में डालने से कर्ज लेने वाले को लाभ नहीं होता है। बैंक उपलब्ध विभिन्न वसूली तंत्रों के माध्यम से राइट ऑफ की गई राशि की वसूली जारी रखते हैं। राइट ऑफ के तहत दीवानी अदालतों या ऋण वसूली न्यायाधिकरणों में मुकदमा दायर करना, दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के तहत मामले दर्ज करना और नन परफॉर्मिंग असेट्स की बिक्री जैसे कदम उठाए जाते हैं।
यानि जो लोग लाखों करोड़ का कर्ज लेते हैं, उनका कर्जा एनपीए में डाल दिया जाता है और यहा जो लोग हजारों में कर्ज मांगते हैं, उन्हें कटोरा पकड़ा दिया जाता है। चप्पलें घिस जाती हैं। दलालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। सरकारी से लेकर निजी बैंकों तक में कर्ज के लिए दलाली देनी पड़ती है, कमीशन का काम चलता है। बैंकों के लिए लोकपाल की कथित व्यवस्था भी होने का दावा किया जाता है, लेकिन एक तो वहां तक कोई पहुंच नहीं पाता, दूसरे शिकायतें सालों-साल पड़ी रहती हैं। कुछ नहीं होता।
कुल मिलाकर होसबोले जी ने दो मुद्दों की तरफ ध्यान दिलाया। एक तो चुनावी खर्च, फिर भ्रष्टाचार और इसके साथ ही बैंकों की कार्य प्रणाली। यह वास्तव में मुद्दा उठाया गया है, तो उन्हें साधुवाद। और संघ को इस मुद्दे को अभियान के रूप में समाज के बीच ले जाना चाहिए। परंतु यदि विपक्ष की भूमिका खुद निभाकर मुद्दों को छीनने का काम किया गया है, जैसा कि अभी तक होता आया है। तो कुछ नहीं हो सकता। सही बात तो यह है कि अच्छे मुद्दे बयानों तक ही सिमट कर रह जाते हैं। लोग भाषणों और बयानों की तारीफ कर देते हैं, जिनके पास देशव्यापी नेटवर्क है, वो यहीं तक सीमित रहते हैं। उन्हें शायद अपनी लोकप्रियता हासिल करने का शौक अधिक होता है, बजाय इसके कि समाज में कुछ अच्छा किया जाए। नहीं तो आज समाज से भ्रष्टाचार भले ही मिटता नहीं, कम अवश्य हो जाता। जब निचले स्तर के कर्मचारी करोड़ों के मालिक निकलते हैं, तो उच्च स्तर पर क्या होगा? लेकिन क्या वहां कार्रवाई होती है? क्या ईडी और सीबीआई के हाथ उन तक पहुंचते हैं? हम विरोधियों को पस्त करने के लिए एक हथकड़ा अपनाकर इतिश्री नहीं कर रहे?
-संजय सक्सेना

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