किसानों की शंका और सरकार का रूख…

 

किसानों की शंका और सरकार का रूख…

 

प्रकाश भटनागर -:

आज दस दिन हो गए। देश के कई हिस्सों का किसान असंतोष से खदबदा रहा है। केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों की आलोचना में वह शांति के साथ अपनी आक्रामकता का परिचय दे रहा है। सही-गलत का फैसला तत्काल करने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन एक यह उम्मीद गलत नहीं है। वो यह कि केंद्र सरकार को अब किसान असंतोष को थामने की दिशा में कुछ ठोस पहल करना चाहिए। सबसे पहली जरूरत तो यह कि इन कानूनों की जो खूबियां गिनाई जा रही हैं, उन्हें तर्कसंगत और सार्वजनिक विमर्श के जरिए सामने लाया जाना चाहिए। बवाल वस्तु तथा सेवा कर यानी जीएसटी को लेकर भी हुआ था

तब जगह-जगह विशेषज्ञों को भेजकर इस टैक्स से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास किया गया था। तो फिर कृषि संबंधी बिलों को लेकर ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है? निश्चित ही लंबे समय बाद देश को केंद्र में एक बहुत मजबूत सरकार मिली है। स्पष्ट बहुमत के साथ। लेकिन इस बहुमत का इस्तेमाल यदि मनमानी करने जैसा दिखने लगे तो यह लोकतंत्र के लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता है। आप बेशक संसद में सदस्य संख्या के लिहाज से कानून पारित करवा सकते हैं, किन्तु देश की वह सड़कें संसद नहीं हैं, जहां इन बिलों का पुरजोर विरोध किया जा रहा है।

यहां बहुमत के दम पर हर कुछ लागू करने की कोशिश आपातकाल की याद ही दिलाती है। सरकार पर आरोप है कि वह किसानों की बजाय पूंजीपति के हितों पर ध्यान दे रही है। वस्तुत: देश में पिछले तीन दशकों की कहानी पूंजीवाद के इर्दगिर्द ही है। किसी भी सरकार ने इस रास्ते को छेड़ने का साहस नहीं दिखाया है तो मोदी सरकार से ऐसी उम्मीद करना बेमानी है। लिहाजा, इस आरोप का कोई मतलब नहीं है कि सरकार उद्योगपतियों के इशारे पर चल रही है। न अतीत इसका अपवाद था और न ही वर्तमान है। पूंजीवाद के अत्याचारी स्वरूप का तो किसी भी सरकार को प्रतिकार करना ही होगा।

यदि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लिखित में आश्वासन चाह रहा है तो फिर इसमें किसी को परेशानी क्यों होना चाहिए? आखिर यह उस अन्नदाता से जुड़ा मामला है, जो देश की अर्थव्यवस्था की आज भी धुरी बना हुआ है। जो अपने कई हमपेशाओं की आए दिन हो रही आत्महत्याओं के बावजूद धरती का सीना चीरकर फसल उगाने का काम कर रहा है। जिसने खेती को लाभ का धंधा बनाने और कर्ज माफी के अनगिनत झूठों को सहने के बावजूद घाटा उठाते हुए भी खेत और खलिहानों से दूरी नहीं बनायी है।

जो हर चुनाव से पहले मोहरा बनाकर सामने लाया जाता है और फिर चुनाव के बाद हाशिये पर धकेल दिया जाता है, लेकिन उसने लोकतंत्र के लिए अपने यकीन को कम होने नहीं दिया है। चुनावों के आंकड़े उठा लीजिये। ग्रामीण इलाकों में मतदान का प्रतिशत हमेशा अपेक्षाकृत ज्यादा ही मिलेगा। तो फिर क्यों ऐसा है कि अर्थव्यवस्था से लेकर लोकतंत्र के निर्माण तक महती भूमिका निभाने वाले इस तबके की आवाज को अनसुना करने की कोशिश की जाए? यदि लाखों का समूह सड़कों पर उतरकर किसी बात का विरोध कर रहा है तो फिर उसके मर्म को समझना ही होगा। बिना आग के धुंआ नहीं उठता है और फिर यहां तो असंख्य आंखों में दहकते शोले वाली बात है। कोई वाजिब वजह तो होगी ही जिसके चलते किसान यूं आपा खो रहे हैं। लिहाजा कृषि कानूनों में किसान को ऐसा कुछ लगता है जो उसके अहित में जाता दिख रहा है, सरकार को उसमें बिना किसी हिचक के सुधार करना चाहिए।

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