14/08/2020,
आर.के. सिन्हा:
भारत की आईटी राजधानी बेंगलुरु के कुछ इलाकों में विगत मंगलवार को एक छोटी-सी बात को लेकर जिस तरह से सांप्रदायिक हिंसा को भड़काया गया, उसके दोषी बच के न निकल सकें, यह राज्य सरकार को सख्ती से सुनिश्चित करना होगा। उनपर कठोरतम एक्शन हो ताकि आगे से ऐसा दंगा-फसाद करने के संबंध में कोई सोचे भी नहीं। बेंगलुरु की हिंसा में कुछ मासूमों की जानें भी गई, तमाम निर्दोष लोग घायल हुए और सरकारी संपत्ति को भारी नुकसान हुआ। सबसे अहम बात यह है कि सारी दुनिया में इस हिंसा का बेहद गलत संदेश गया। बेंगलुरु में लाखों विदेशी पेशेवर रहते हैं। जरा सोचिए कि उनके और उनके विदेशों में रह रहे परिवार के जेहन में किस तरह की छवि बनी होगी बेंगलुरु और भारत की इस हिंसा के कारण।
बेगलुरू जैसे आधुनिक महानगर में उपद्रवियों ने जगह-जगह गाड़ियों को आग लगाई और एटीएम तक में तोड़फोड़ की गई। उन्होंने कांग्रेस के विधायक के घर पर हमला किया। दरअसल बेंगलुरु में कांग्रेस विधायक अखंड श्रीनिवास मूर्ति के एक कथित रिश्तेदार ने पैगंबर मोहम्मद को लेकर सोशल मीडिया पर कुछ अपमानजनक पोस्ट किया था, जिसकी प्रतिक्रिया में ही यह सुनियोजित हिंसा हुई। सवाल यह है कि क्या अब भारत में किसी भी मसले पर विरोध जताने के लिए हिंसा का ही सहारा लिया जाएगा? उपर्युक्त पोस्ट को लेकर संबंधित व्यक्ति के खिलाफ उचित पुलिस एक्शन हो सकता था। आखिर किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार हरगिज़ नहीं है।
बेंगलुरू की ताजा घटना से साफ है कि देश में धार्मिक कठमुल्लापन ने बहुत गंभीर रूप ले लिया है। अपने को कट्टर मुसलमान कहने वाले बात-बात पर सड़कों पर उतरने लगे हैं। ये अपने मजहब के नाम पर कट्टरता फैला रहे हैं। इससे जाहिलपन बढ़ता जा रहा है। इस्लामी कठमुल्लों के आचरण पर सेक्युलरवादियों की रहस्यमय चुप्पी भी डरावनी है। ये अचानक अज्ञातवास में चले गए हैं। क्या इस हिंसा की उन्हें भर्त्सना नहीं करनी चाहिए थी?
बैंगलुरू में कठमुल्लों ने ईश निंदा के नाम पर गरीब बस्तियों में मुसलमानों को उकसाया-भड़काया। नतीजा यह हुआ कि उन्मादी भीड़ ने जमकर तोड़फोड़ की। घंटों यह हिंसक उन्माद चला। पुलिस ने हस्तक्षेप किया तो उनपर भीड़ ने हमला बोला। साठ पुलिस वाले भी घायल हो गए। यह सच में बहुत बड़ा आंकड़ा है।
खाए-पिए-अघाए लिबरलों की जमात अब यह तो बताए कि उन्होंने चुप्पी क्यों साध ली है? इन तथाकथित वामपंथियो के चलते उन समस्त लोगों को शर्मिंदा होना पड़ता है जो बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक फिरकापरस्तों और उनकी साम्प्रदायिक सोच से लड़ते हैं। यह वर्ग उन करोड़ों अल्पसंख्यकों के सामने कांटा बिछाता है जो अपने बीच के उन्मादियों और जाहिलों से लड़ रहे हैं। बेशर्म हैं ये। याद रख लें तुष्टिकरण की राजनीति जल्द खत्म नहीं होगी क्योंकि कुछ स्वार्थी राजनेताओं को इसी में अपना भला नजर आता है। जबतक कोई कड़ा कानून नहीं आएगा और तुष्टीकरण के खिलाफ सारी विपक्षी पार्टियाँ मुंह नहीं खोलेंगी तब तक बैंगलुरू जैसी हिंसक वारदातें होती रहेंगी।
देश में मुसलमानों का एक वर्ग अब लगभग तालिबानी सोच रखने लगा है। पिछले दिनों राम मंदिर के शिलान्यास के अवसर पर ये खुलकर कह रहे थे कि हम समय आने पर वहां फिर मस्जिद बना लेंगे। जरा गौर करें कि राम मंदिर बना नहीं है और उससे पहले ये मंदिर को तोड़ने और बम से उड़ाने की धमकियां देने लगे। क्या यही लोकतंत्र है? तथाकथित लुटियन गैंग अब क्यों नहीं बोलता? अब लेखक वापस क्यों नहीं करते अपने पुरस्कार या अब कैंडल मार्च क्यों नहीं निकालते? ये बेशर्म बुद्धिजीवी देश को सिर्फ अपमानित करने के काम में ही लगे रहते हैं? जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो। आखिर कबतक?
ध्यान दें कि सब अपने आराध्यों का अपमान बर्दाश्त करते हैं। क्यों करते हैं? यह उनकी समस्या है। पर वे अपने रसूल की शान में गुस्ताख़ी नहीं बर्दाश्त करेंगे। उन्होंने गुस्ताख़े रसूल की एक सज़ा मुकर्रर कर रखी है तो वह देकर रहेंगे। इस जद्दोजहद में वे अपनी जानें दे भी देंगे, जानें ले भी लेंगे। सरकार और क़ानून उनके लिये कोई मायने नहीं रखते। वे अपनी औलाद से भी ज़्यादा अपने रसूल से प्रेम करते हैं। यदि वह किसी को प्रेम करते हुए फूल भी पेश करेंगे तो कहेंगे कि अल्लाह और उसके रसूल के बाद मैं सबसे ज़्यादा मुहब्बत तुमसे करता हूँ। जिसे इन शर्तों पर उनसे भाईचारा निभाना हो निभाये, न निभाना हो न निभाये। उन्हें मीम भीम की परवाह नहीं। उनका ईमान है कि इज्जत देने वाला रब्बुल इज्जत है न कि बुतपरस्त कुफ्फार। ये स्वस्थ आलोचना तक बर्दाश्त नहीं कर सकते। ये कभी शिक्षा, रोजगार मांगने तो सड़कों पर नहीं उतरेंगे, पर धर्म के नाम पर तुरंत आग लगा देंगे। क्या इतना कमजोर हो सकता है धर्म, जो सिर्फ आलोचना से ही खतरे में आ जाता है।
खैर, जिस किसी ने भी बेंगलुरु में दंगे भड़काये या उनमें भाग लिया, उन्हें किसी भी हालत में छोड़ा नहीं जाना चाहिए। उनकी सही पहचान कर उन्हें कठोर दंड मिलना ही चाहिए। दंगों के कारण देश की उजली छवि पर अकारण दाग लगा दिया गया है। ठोस सुबूत मिल रहे हैं कि बैंगलुरू में भड़के दंगे सुनियोजित साजिश का नतीजा थे। वर्ना इतने बड़े पैमाने पर अचानक दंगे भड़क नहीं सकते थे। बेंगलुरु के जिन भागों में दंगे भड़के वहां पर सब धर्मों के लोग मिलजुलकर लंबे समय से रह रहे थे। इनमें कोई आपसी वैमनस्य दूर-दूर तक का नहीं था। पर अचानक इस सौहार्द के वातावरण को किसी की नजर लग गई। बेशक दंगों से एकबार दहल ही गई भारत की आईटी राजधानी। बैंगलुरू पुलिस की तारीफ करनी होगी कि उसने दंगों को महानगर के बाकी भागों में फैलने नहीं दिया। यह पुलिस की भारी सफलता ही मानी जायेगी। अब दंगाइयों की तेजी से पहचान की जानी चाहिए ताकि उन्हें सबक सिखाया जा सके।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।