यह सक्रियता सुखद है। हम पूरी ऊर्जा के साथ खुशी मना रहे हैं। सोशल मीडिया पर हमारा सक्रिय उत्साह देखते ही बनता है। बात है भी बड़ी। हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम अब रानी कमलापति रेलवे स्टेशन हो गया है। सोशल मीडिया पर एक इंसान की पीठ किसी शक्तिपीठ जैसा सम्मान पा गयी लगती है। यह उस शख्स का फोटो है, जो स्टेशन पर ‘हबीबगंज’ के नाम के ऊपर ‘रानी कमलापति’ वाली पट्टी चिपका रहा है। बहुत अच्छी बात है कि इसी बहाने रानी कमलापति के जीवन तथा कार्यों को भी लंबे समय बाद खूब प्रचार मिल रहा है।
अब आगे क्या? ये सक्रियता और ऊर्जा कब तक कायम रहेगी? इस बात को एक उदाहरण से समझिए। बरसों पहले तबादले के बाद भोपाल आये एक सज्जन ने मुझसे पूछा था, ‘ये डबल टी नगर कहां है?’ मेरे वह मित्र जिस जगह की बात कर रहे थे, वह दरअसल तात्या टोपे नगर है। इस महान स्वतंत्रता सेनानी के लिए उस दोस्त के ‘डबल टी’ वाले संबोधन पर गुस्सा आने के बावजूद मैं इस भाव को जाहिर नहीं कर सकता था। क्योंकि खुद मैं और लगभग पूरा शहर इस इलाके को तात्या टोपे नगर की बजाय टीटी नगर कहकर ही तो बुलाते हैं। जब हम भोपाल में रहकर ही तात्या टोपे के लिए अपने आदर को ‘टीटी’ से आगे तक विस्तार नहीं दे पाए तो फिर बाहर से आये किसी व्यक्ति से इसकी उम्मीद किस तरह की जा सकती थी?
भला हो कि कुछ सरकारी कागज़ आज भी तात्या टोपे नगर को ज़िंदा रखे हुए हैं। वरना तो मेरा दावा है कि आप शहर के लोगों से जीटीबी काम्प्लेक्स का पूरा नाम पूछेंगे तो आधे से ज्यादा बगले झांकने लगेंगे। गलती उनकी नहीं है। ये दोष उस फितरत का है, जिसके चलते हमने सिखों के महान गुरू तेग बहादुर सिंह जी के नामकरण वाले बाजार को ‘जीटीबी’ में सिमटा दिया है। जयप्रकाश नारायण चिकित्सालय को हम ‘जेपी हॉस्पिटल’ कहकर बुलाते हैं। सरदार त्रिलोचन सिंह के नाम पर जो इलाका बसा उसकी पहचान ‘त्रिलंगा’ भर रह गयी है। अपने पुराने अस्तित्व के पूरे समय मौलाना आजाद कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलॉजी कभी भी ‘एमएसीटी’ की परछाई से अधिक का विस्तार नहीं पा सका। और आज भी उसके वर्तमान स्वरुप मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान को मैनिट कहकर ही बुलाया जाता है। राजीव गांधी तकनीकी विश्वविद्यालय का पता पूछने पर शायद आपको सही जवाब न मिल सके, लेकिन ज्यों ही आप ‘आरजीटीयू’ बोलेंगे, आपको मिलने वाले सही जवाब की झड़ी लग जाएगी।
इस शहर में ही कुशाभाऊ ठाकरे इंटर स्टेट बस स्टैंड स्थित है। लेकिन आम बातचीत तो दूर, मीडिया की अधिकांश खबरों में भी ठाकरे जी को जगह नहीं दी जाती है। यहां की बात हो या हो इस जगह से जुड़ा कोई कवरेज, बोलने और लिखने में ‘आईएसबीटी’ का ही इस्तेमाल होता है। यहां मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय के नाम की हद ‘एमवीएम’ तय कर दी गयी है। महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय को ‘एमएलबी’ बुलाने की दुखद रवायत को मान्यता मिली हुई है। गांधी मेडिकल कॉलेज केवल ‘जीएमसी’ होकर रह गया है। शूरवीर महाराणा प्रताप की याद में स्थापित नगर के लिए ‘एमपी नगर’ की पहचान भर रह गयी है। महान भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी जी की स्मृति को समर्पित पत्रकारिता विश्वविद्यालय को ‘एमसीआरपीवी’ की बेड़ियों में जकड़ दिया गया है।
इस सबके बाद यह आशंका गलत नहीं लगती कि जल्दी ही हम रानी कमलापति के सम्मान की भी कोई हद तय कर देंगे। शायद ‘आरकेएमपी’ के संबोधन में भोपाल की आख़िरी हिन्दू रानी की स्मृति को धकेल दिया जाए। इसकी वजह यह कि परिश्रम के मामले में हमारी आदत हास्यास्पद विरोधाभासों से भरी हुई है। हम भले ही फ़ोन पर घंटों फालतू बात कर लेंगे, लेकिन समय केवल तब बचाएंगे, जब किसी महान आत्मा के नाम पर रखे गए किसी संस्थान या अन्य जगह का जिक्र करना हो। सोशल मीडिया पर अगंभीर विषयों के लिए भी पोस्ट/कमेंट लिखने में हमारे हाथ नहीं रुकते, लेकिन तात्या टोपे नगर का नाम पूरी तरह लिखने में हम जैसे हांफ जाते हैं। नामकरण मात्र से कुछ नहीं हो जाता, उस नाम की पहचान के लिए कामकरण भी किया जाना चाहिए। जब हमारे पास इतना भी समय नहीं है कि किसी विशिष्ट शख्सियत का पूरा नाम ले/लिख/कह सकें तो फिर इस सब कवायद का अर्थ ही क्या रह जाता है? हर मामले में शार्ट फॉर्म तलाशने की ये प्रक्रिया महापुरुषों की स्मृति के साथ किसी शार्ट सर्किट वाले हादसे की प्रक्रिया से कम खतरनाक नहीं है।
श्रीं प्रकाश भटनागर
वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल