पीलू या मिसवाक एक वृक्ष है। इसकी टहनियों की दातून मुस्लिम संस्कृति में बहुत प्रचलित है। मिस्वाक की लकड़ी में नमक और खास क़िस्म का रेजिन पाया है जो दातों में चमक पैदा करता है। मिसवाक करने से जब इस की एक तह दातों पर जम जाती है तो कीड़े आदि से दन्त सुरक्षित रहतें हैं। इस प्रकार चिकित्सकीय दृष्टि से मिस्वाक दांतों के लिए बहुत लाभदायक है।
मिसवाक (सिवाक, सिवक, अरबी: سواك या مسواك) एक दांत साफ़ करने वाली टहनी है जो सल्वादोरो या पीलू के पेड़ से ली गयी है। आधुनिक टूथब्रश के लिए एक पारंपरिक और प्राकृतिक विकल्प, इसका इतिहास लंबा और अच्छी तरह से प्रलेखित है और इसके औषधीय लाभों के लिए प्रतिष्ठित है। यह 7000 साल पहले से इस्तेमाल किये जाने के लिए प्रतिष्ठित है। [1] इस के गुण और औषधीय संपत्तियों को इस प्रकार वर्णित किया गया है: “उनके जीवाणुरोधी गतिविधि के अलावा जो दंत पट्टिका के गठन और गतिविधि को नियंत्रित करने में मदद कर सकते हैं, उन्हें दांतों की सफाई के लिए एक प्राकृतिक टूथब्रश के रूप में प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। यह टहनियां प्रभावी, सस्ती, आम, उपलब्ध हैं, और कई चिकित्सा गुण रखती हैं “। [2]
इसका उपयोग मुस्लमान ज्यादा तर करते हैं। यह आमतौर पर अरब प्रायद्वीप, अफ्रीका के हॉर्न, उत्तरी अफ्रीका, समुद्र तट के हिस्सों, भारतीय उपमहाद्वीप, मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में उपयोग किया जाता है। मलेशिया में, मिव्वाक को केयू सुगी (‘चबाने वाली छड़ी’) के नाम से जाना जाता है। जोधपुर। रेगिस्तान की भूमि भले ही बंजर हो, लेकिन प्रकृति ने कुछ अनमोल सौगातें रेगिस्तान के लोगों को भी प्रदान किए है। प्रचंड गर्मी की शुरुआत होते ही रेगिस्तान में विषम हालात में भी जिंदा रहने वाले पौधे फल देना शुरू कर देते है। कैर-सांगरी जैसी सब्जियों के साथ ही छोटे आकार के रंग-बिरंगे फल पीलू से लकदक जाळ लोगों को बरबस ही अपनी तरफ आकर्षित करना शुरू कर देती है। एकदम मीठे रस भरे इस फल की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे अकेला खाते ही जीभ छिल जाती है। ऐसे में एक साथ आठ-दस दाने मुंह में डालने पड़ते है। ऐसा होता है पीलू…
– पीलू का पेड़ बेतरतीबी से फैलाव लिए होता है। इस कारण स्थानीय बोलचाल में इस जाळ कहा जाता है। एक जाल के समान ही कोई इसमें उलझ सकता है। जमीन तक फैले जाळ के ऊपर बकरियां बड़े आराम से चढ़ जाती है। तेज गर्मी के साथ जाळ के पेड़ पर हरियाली छा जाती है और फल लगना शुरू हो जाते है। चने के आकार के रसदार फल को पीलू कहा जाता है। लाल, पीले व बैगनी रंग के इन फलों से एकदम मीठा रस निकलता है। इन दिनों मारवाड़ में हर तरफ पीलू की बहार आई हुई है। इसे तोड़ने के लिए महिलाएं व बच्चे सुबह जल्दी गले में एक डोरी से लोटा बांध जाळ पर जा चढ़ते है। एक-एक पीलू को तोड़ एकत्र करना श्रम साध्य कार्य है।
पीलू खाने का भी है अलग तरीका
– पीलू को खाने का भी एक अलग तरीका है। यदि किसी ने एक-एक कर पीलू खाए तो उसकी जीभ छिल जाएगी। वहीं एक साथ आठ-दस पीले मुंह में डाले कर खाने पर जीभ बिलकुल नहीं छिलती।
लू से करता है बचाव
– रेगिस्तान के इस मेवे के बारे में प्रसिद्ध है कि यह पौष्टिकता से भरपूर होता है और इसे खाने से लू नहीं लगती। साथ ही इसमें कई प्रकार के औषधीय गुण भी होते है। औषधीय गुण के कारण महिलाएं पीलू को लोग एकत्र कर सुखा कर प्रीजर्व कर लेती है। ताकि बाद में जरुरत पड़ने पर ऑफ सीजन में भी खाया जा सके।
पीलू और कैर से जुड़ी मान्यताएं
– मारवाड़ में ऐसी मान्यता है कि जिस वर्ष कैर और पीलू की जोरदार बहार आती है उस वर्ष जमाना अच्छा होता है। इस बार मारवाड़ में कैर व पीलू की जोरदार उपज हुई है। ऐसे में लोगों का कहना है कि इस बार मारवाड़ में अच्छी बारिश होगी।
डूंगर यानी पीलू को औषधीय पौधा भी माना जाता है। इसकी दातुन करने से दांत के रोग नहीं लगते। यह पीलिया जैसे रोगों में रामबाण का काम करता है। इसका फल शरीर में पानी की कमी को पूरा करता है। यह लू से भी बचाता है। इसके पत्ते भी खटटे- मीठे होते हैं तथा इसे कुदरती पौधा माना जाता है। इसकी छाल का काढ़ा लीवर रोगों में भी फायदेमंद होती है। इसका वनस्पतिक नाम डाइओरपाइरोस कांडीफोलिया है। इसे पटवन भी कहते हैं तथा इसके फल को पक्षी भी बड़े चाव से खाते हैं।
आध्यात्मिक महत्व है पीलू का
पीलू को आध्यात्मिक यानी धार्मिक पौधा भी माना जाता है। कुछ लोग इसे योगीराज श्रीकृष्ण से जोड़ते हैं तो कुछ राधारानी से। इसे पांडवों की पसंद का पौधा भी बताते हैं। इसकी टहनियां हवन में भी काम में लाई जाती हैं। संतों के कमंडल के निर्माण में भी इसकी लकडी का प्रयोग होता है। गुरू गो¨बद ¨सह से भी इस पेड़ को जोड़ा जाता है।
हुई है अंधाधुंध कटाई
डूंगर के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण ये नष्ट होते चले गए। चकबंदी के समय ये वृक्ष काफी काटे गए। बाद में भी ये धीरे धीरे नष्ट होते गए। वन विभाग द्वारा नए पेड़ न लगाए जाने के कारण इनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।
पीलू के पेड़ों का समाप्त होना ¨चता का विषय है। हमारा संगठन शीघ्र ही वन विभाग के आला अफसरों से मिलकर मांग करेगा कि इनकी पौध मंगवा कर लगवाई जाए। आने वाले दिनों में इनका रोपण किया जाए। वैसे भी सरकार औषधीय व धार्मिक पौधों पर काफी ध्यान दे रही है।
पीलू का फल बहुत ही स्वादिष्ट होता है। अब तो इसके फल खाना तो दूर इसके वृक्ष भी देखने को नहीं मिलते। कहीं यदि एक-दो पेड़ भी हैं तो उनपर फल नहीं लगते। वन विभाग को इन पेड़ों को ज्यादा से ज्यादा लगाना चाहिए।
पहले इलाके में पीलू या डूंगर के काफी पेड़ थे। रजौलका व दुर्गापुर आदि गांवों सहित अनेक गांवों में ये काफी संख्या में थे। अब ये पेड़ ना के बराबर हैं। राजस्थान में इसकी पौध उपलब्ध है हम लुप्त प्रायः हो रहे वृक्षों का संरक्षण और संवर्धन कर रहे हैं और कुछ पौधे को तैयार किया है।