ऑनलाइन शिक्षा…कितनी सार्थकता और कितनी सफलता …?

 

 

संजय सक्सेना :
कोरोना काल में स्कूल और कालेज खोलना खतरे से खाली नहीं हैं, सो आनलाइन शिक्षा की पहल हमारे देश में भी हो रही है। हम नए तौर तरीके सीखें, आधुनिक संसाधनों का उपयोग करना सीखें और आगे बढ़ें, यह सभी चाहते हैं, परंतु आज के हालात में आनलाइन या डिजिटल कक्षाएं कितनी सार्थक और कितनी सफल हैं? यह प्रश्न तो मौजूं है ही।
एक कड़वा सच यह है कि भारत में आनलाइन कक्षाओं के लिए करोड़ों बच्चे तो मानसिक या आर्थिक रूप से समर्थ ही नहीं हैं। एक उदाहरण हम भोपाल का ही दे रहे हैं। एक श्रमिक के बच्चे की आनलाइन कक्षा शुरू कर दी गई है। उसने जैसे-तैसे उधारी में मोबाइल भी ले लिया, परंतु सबसे बड़ी समस्या यह है कि न तो बच्चे को कुछ समझ में आ रहा है और न ही उसकी माँ या पिता को कुछ पल्ले पड़ रहा। अब तीन घंटे की क्लास कोई पड़ौसी तो अटेंड करने से रहा। मैडम का कहना है कि किसी दोस्त से कापी लेकर उतार ले। अब एक दर्जन बच्चों से संपर्क कर चुके उस बच्चे के माता-पिता, उनकी खुद की कापी पूरी हो तो वे दें। यानि निल बटा सन्नाटा..।
भारत में सामाजिक, आर्थिक विषमताएं बहुत व्यापक हैं। ऐसे कितने छात्र हैं जिनके पास ऑनलाइन शिक्षा के लिए जरूरी तकनीकी साधन उपलब्ध हैं। बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जिनके पास कमोबेश साधन तो हैं, लेकिन घर में एकांत का अभाव है। एक कमरे में पूरा परिवार, कोई झुग्गी में रह रहा है, जाहं आनलाइन क्लास का क ख ग भी नहीं सुनाई देता। टीवी का शोर, रसोई की आवाज, सबका उन्हें सामना करना है। ऐसे बहुत ही कम घर हैं, हो सकता है कुल बच्चों का यह पच्चीस प्रतिशत हो या इससे भी कम हो, जहां ऑनलाइन शिक्षा के जरूरी साधन भी हैं और माहौल भी। दावा किया जा रहा है कि आनलाइन कक्षाएं शिक्षा और ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में बहुत बड़ा सामाजिक भेदभाव पैदा कर सकती हैं। वैसे तो इस तरह के भेदभाव हमारे बीच पहले से ही उपलब्ध
हैं, लेकिन इसका दायरा और बढ़ जाएगा, जोकि कम से कम भारत देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए तो बहुत घातक साबित होगा।
अभी छोटे से कालखंड में ही ऑनलाइन शिक्षा के दुष्प्रभाव सामने आने लगे हैं, आगे का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा देखने में आया कि बच्चों की कक्षाएं 3 से 5 घंटे तक चलाई जा रही हैं। इसके अलावा बच्चों को होमवर्क भी दिया जा रहा है। कुल मिलाकर विद्यार्थी और शिक्षक दोनों करीब 8 घंटा ऑनलाइन बिता रहे हैं। यह उनके मानसिक और शारीरिक दोनों स्थितियों के लिए घातक है। छोटे बच्चों के लिए तो यह बहुत ही खतरनाक है। इस छोटे से कालखंड में कई शिकायतें सामने आ रही हैं। ये बच्चों के भीतर आंखों की समस्याएं और उनमें चिड़चिड़ापन बढ़ाने वाला साबित हो रहा है। कुछ बच्चों में मानसिक समस्याएं भी देखने को मिलीं। यह व्यवस्था उन्हें अकेलेपन से अवसाद की तरफ धकेलता भी दिख रहा है।
अब स्कूल और कालेज संचालकों को तो किसी भी तरह फीस वसूलना है और अपने कोर्स को पूरा करने की औपचारिकता करनी है, जो स्कूल में लगने वाली कक्षाओं में भी करते हैं। लेकिन उन्हें इससे कोई लेना-देना नहीं होता कि बच्चा वह पूरा कर पा रहा है या नहीं। आनलाइन कक्षाओं में तो और हालत बदतर है। जो बच्चे पूरी क्लास अटेंड करते हैं, उनमें से आधे से ज्यादा बच्चों को बमुश्किल एक तिहाई भी समझ आ जाए तो बड़ी बात है। बहुत सारा समय तो मोबाइल सैट करने में खर्च हो जाता है, बीच में डिस्टर्बेंस भी। इसके अलावा हमारे यहां घरों के अंदर नेटवर्क की समस्या भी आम है। अधिकांश कंपनियों के नेटवर्क की हालत आज भी अच्छी नहीं है। वीडियो कान्फ्रेंसिंग के दौरान कहीं केवल वीडियो आता है, आवाज चली जाती है तो कभी आवाज आती है, वीडियो नहीं दिखता। आवाज साफ आने की भी समस्या रहती है। कई लोग अपने सैट की आवाज खोल देते हैं, तो सामने वाले की आवाज साफ नहीं सुनाई देती। ये छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन आनलाइन कक्षा के हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण हैं। स्कूल, कालेज तो अपना कोर्स पूरा कर लेंगे, लेकिन उसमें दो तिहाई बच्चों का आधा या तिहाई कोर्स ही पूरा हो पाएगा।
देखा जाए तो कोरोना वायरस ने मानव जीवन के साथ मानवीय मूल्यों को भी संकट में डाल दिया है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में करीब 25 करोड़ स्कूली छात्र हैं। वहीं, विश्वविद्यालयों में उच्च और तकनीकि शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों की संख्या करीब 7 से 8 करोड़ के करीब बताई जाती है। कुल मिलाकर करीब 32 से 33 करोड़ छात्र हैं। हिसाब लगाएं तो इसमें से आधे छात्र भी आनलाइन कक्षाएं सही से अटैंड नहीं कर सकते, न कर पा रहे होंगे। इसके चलते इनका शैक्षणिक ताना-बाना पूरी तरह तहसनहस हो गया है। सरकारें चाह रही हैं कि बच्चे पढ़ें, अधिकांश निजी स्कूल-कालेजों की नजर अपनी फीस पर ज्यादा है, मां-बाप दोनों पाटों के बीच पिस रहे हैं। न तो वे आनलाइन क्लास का विरोध कर पा रहे हैं और न ही उनके बच्चे ठीक से पढ़ पा रहे हैं। परिणाम कितने अच्छे या कितने घातक होंगे, दो-तीन माह में ही सामने आ जाएगा।

साभार -संजय सक्सेना की फेसबुक वाल से

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