एम्स भोपाल..सुविधा या दुविधा?

 

 

 

एम्स भोपाल..सुविधा या दुविधा?

संजय सक्सेना:
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, अर्थात एम्स। भोपाल में भी एम्स की शाखा है। परंतु यह इस शहर के लिए सुविधा है या दुविधा? प्रश्न इसलिए उठ रहा है, क्योंकि एक तो यह बनने के पहले से ही विवादों में रहा। निर्धारित समय से ज्यादा समय लग गया शुरू होने में। कहीं निर्माण की गुणवत्ता को लेकर मामले उठे, तो समय-समय पर भर्ती को लेकर भी उंगलियां उठती रही हैं। बाकायदा रैकेट चलते रहे हैं यहां भर्ती वाले। आज भी चल रहे हैं, ऐसा दावा किया जाता है।
परंतु हम इसके मूल मुद्दे पर आते हैं। अस्पताल का उद्देश्य मरीजों का इलाज करना ही होता है, पर भोपाल एम्स को लेकर राजधानी के रहवासियों में विश्वास हो गया है कि यहां जाओ तो और बीमार होकर आते हैं। ऐसा नहीं कि यहां डाक्टर खराब हैं, परंतु व्यवस्थाएं इतनी खराब हैं कि चिकित्सक तक पहुंचते-पहुंचते मरीज की तबीयत और बिगड़ जाती है। रोगियों को इलाज कराने की सुविधा के नाम पर यहां है क्या? कोरोना काल में तो व्यवस्थाएं और बिगाड़ दी हैं। शुरुआत ओपीडी से करते हैं। पर्चा बनवाने के लिए अब आफ लाइन के साथ ही आनलाइन भी व्यवस्था है, लेकिन कोरोना संक्रमण के चलते अब पर्चे की लाइन बाहर ही लगाई जा रही है। ऐसा नहीं है कि इस लाइन में ही लग कर पर्चा बन जाए। इसमें तो आपको पर्ची मिलेगी, या पुराने पर्चे पर सील लगेगी। इसके बाद अंदर जाकर फिर बनता है डाक्टर को दिखाने वाला पर्चा। इसके बाद डाक्टर के कक्ष के बाहर लंबी लाइन। पर्चा जमा कर दो। कुछ जगह पहले ब्लड प्रेशर और वजन की जांच करानी होती है, वहां लाइन लगती है। यह तो चलता है, लेकिन सबसे ज्यादा अखरती है बाहर लाइन लगाना। लोग छह बजे से आकर खड़े हो जाते हैं और यहां काम शुरू होता है सवा या साढ़े आठ बजे। इसके पहले प्रशासन का कोई अधिकारी या कर्मचारी मौजूद नहीं रहता। पूरा दारोमदार सुरक्षा कर्मचारियों पर ही रहता है। और सबसे ज्यादा अखरने वाला क्षण वह होता है, जब आप सुबह से लाइन में लगे हैं और अचानक एनाउंसमेंट होने लगता है कि आंख और दांत वाले जो डाक्टरों को दिखाने वाले जो लाइन में लगे हैं वो वापस चले जाएं। यहां के मरीज फुल हो गए हैं। यानि एक-डेढ़ घंटा तो बेकार गया ही, आप इलाज बिना कराए ही वापस घर चले जाओ। जो लोग बाहर से आते हैं, वो फिर दूसरे दिन लाइन में लग जाते हैं।
कोरोना के नाम पर जो बाहर लाइन लगवाई जा रही है, उसमें खड़े-खड़े कई बार तो मरीज चक्कर खाकर गिर जाते हैं। कई परिजन खुद बीमार पड़ जाते हैं। रोगी को डाक्टर को दिखाने के पहले ही उन्हें इलाज की जरूरत पड़ जाती है। न तो वहां कोई शिकायत सुनने वाला है और न ही कोई व्यवस्थाएं देखने वाला। साढ़े दस बजे के बाद प्रशासनिक कर्मचारी-अधिकारी आते हैं, लेकिन अधीक्षक नामक जो अधिकारी है, वो कभी किसी मरीज या उसके परिजन से नहीं मिलता। कर्मचारी कहते हैं, बड़े अफसर हैं, बहुत बड़ा अस्पताल है, नहीं मिलना। लैंडलाइन फोन गूगल तक पर दिए हैं, लेकिन उठते नहीं हैं। डायरेक्टर साहब तो मंत्री से भी बड़े हैं। मीडिया वालों तक से आसानी से नहीं मिलते। भोपाल जो भी डायरेक्टर बनकर आते हैं, वो बड़े लोगों, मंत्रियों से ही मिलकर इतिश्री कर लते हैं। दिल्ली में सैटिंग से उन्हें यहां पदस्थापना मिलती है, मरीजों से कोई लेना-देना नहीं। स्थिति यह है कि सांसद भी एम्स में किसी को आसानी से इलाज मुहैया नहीं करवा पाता, जबकि वह यहां की एक समिति का सदस्य होता है। गार्ड सीधे कहते हैं, यहां कोई नहीं चलेगा, सांसद ने भेजा हो या मंत्री ने, लाइन में लग जाओ। अधिकारी कहेंगे, तभी वो मानेंगे। हां, गार्ड या सुरक्षा वालों के परिचित होने का लाभ जरूर मिल जाता है। उन्हें सीधे एंट्री मिल जाती है और डाक्टर को भी जल्द दिखाने का सुख उन्हें हासिल हो जाता है। हालात ये हैं कि यहां पदस्थ चिकित्सक भी यदि हस्ताक्षर करके पर्चा जल्द बनवाने का कहता है, तो भी लाइन में ही लगना पड़ता है, घंटों। अस्पताल के स्टाफ के लिए जरूर एक अलग लाइन बनी है, तो वहां सुरक्षा वालों के परिचित भी लाभ उठा लेते हैं।
समस्याओं का अंत यहीं पर नहीं है। डाक्टरों के बारे में भी अंदर ही जाने पर पता चल पाता है कि वो आए हैं या नहीं। आप पर्चा बनवाकर गए कि फलां डाक्टर को दिखाना है, पता चला कि दूसरे को दिखाना पड़ रहा है। पहले ओपीडी वाले हाल में बाकायदा स्क्रीन पर चलता रहता था कि कौन से डाक्टर का आज ओपीडी कादिन है, कौन आया है और कौन नहीं। पहले सीधे लैंड लाइन फोन पर भी पता चल जाता था, लेकिन अब यह सुविधा नहीं है। आपको अस्पताल आने और लाइन लगाकर संक्रमण मोल लेने का जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा। लाइन-दर-लाइन, जब थक जाओ, तो आराम कर लो। फिर लाइन। आठ बजे सुबह पहुंचने वाला मरीज दस बजे से पहले डाक्टर को नहीं दिखा पाता। और जो थोड़ा लेट हुआ तो कई विभाग में तो पर्चे बनना ही बंद हो जाता है। यानि हाउस फुल। मीलों दूर सफर करके एम्स पहुंचे, घंटों लाइन में लगे, फिर भी खाली हाथ। और अधिक बीमार पड़कर लौटे। यह कहानी है फिलहाल भोपाल एम्स की। सुधरने की कहीं कोई सूरत नजर नहीं आती। मध्यम वर्ग के लोग यहां इसलिए ज्यादा जाते हैं, क्योंकि उन्हें कोई सरकारी सुविधा नहीं मिलती, निजी अस्पतालों में इलाज उनके बस का नहीं, सो लगो लाइन में। कुछ चिकित्सक बहुत अच्छे हैं, सो कम पैसे में थोड़ा अच्छा इलाज पाने के लिए इतनी मशक्कत करनी ही पड़ती है। परंतु क्या बड़ी-बड़ी बातें करने वाली सरकारों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती..इन असुविधाओं से निजात दिलाने की?

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