आरबीआई ने सहकारी बैंकों पर नकेल कसते हुए राजनितिज्ञों के दखल को किया नामंजूर

 

 

सूक्ष्म और अति सूक्ष्म क्षेत्र में सहकारी बैंकों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा है और साथ ही गैर संगठित क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की पूंजी को संगठित और बैंकिंग प्रणाली में लाने का काम इन बैंकों ने किया है.

लेकिन सही दिशा निर्देश और नियामक के अभाव में सहकारी बैंकों के प्रबंधन द्वारा लोगों की जमापूंजी का दुरूपयोग करना आम बात रही है, जिस पर राजनीतिक दखलंदाजी के कारण कभी सरकार की नजर नहीं गई.

जब पिछले साल कोविड काल के कारण कई सहकारी बैंक डूबने के कगार पर पहुँचे, तब आरबीआई जागा और उसने सबसे पहले इन सहकारी बैंकों को अपनी निगरानी में लेते हुए निर्देश दिया कि अब उन्हें आरबीआई के नियमों के अन्तर्गत काम करना पड़ेगा.

इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए आरबीआई ने शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण निर्देश जारी करते हुए कहा कि अब इन सहकारी बैंकों के शीर्ष पदों पर सिर्फ पैशेवर ही बैठेंगे और किसी भी तरह की राजनितिक दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जावेगी.

अब से सांसद, विधायक और नगर निगम के प्रतिनिधि, शहरी सहकारी बैंकों के एमडी या पूर्णकालिक निदेशक नहीं बन सकेंगे.

साथ ही आरबीआई ने कारोबारियों और किसी कंपनी में अच्छा-खासा दखल रखने वाले लोगों को भी इन पदों पर काबिज होने से रोक दिया है.

रिजर्व बैंक ने शुक्रवार को ऐलान किया कि सहकारी बैंकों में सीईओ और पूर्णकालिक निदेशक बनने के लिए न्यूनतम योग्यता और उम्र सीमा होगी.

नियमों के मुताबिक सीईओ की न्यूनतम उम्र 35 साल से कम और 70 साल से अधिक नहीं होनी चाहिए.

साथ ही कोई भी व्यक्ति बैंक के एमडी और पूर्णकालिक निदेशक के पद पर 15 साल से अधिक समय तक नहीं रह सकेगा.

सहकारी बैंकों के संचालन में बदलाव की शुरुआत बीते साल जून में ही हो गई थी, जब देश के केंद्रीय बैंक ने एक अध्यादेश लाकर 1482 शहरी सहकारी बैंकों और 58 मल्टी स्टेट सहकारी बैंकों को अपने अधीन देखरेख करने का फैसला लिया था.

साथ ही अब इन बैंकों में एमडी और पूर्णकालिक निदेशक बनने के लिए व्यक्ति का स्नातक होना अनिवार्य कर दिया गया है या फिर उनके पास वित्तीय योग्यता जैसे सीए, कॉस्ट अकाउंटेंट, एमबीए या बैंकिंग या कॉ-ऑपरेटिव बिजनेस मैनेजमेंट में डिप्लोमा या डिग्री होना जरूरी है.

सहकारी बैंकों में शीर्ष पद उन्हीं लोगों को दिए जाएंगे, जिनके पास बैंकिंग सेक्टर में मध्यम या वरिष्ठ स्तर पर प्रबंधन का कम से कम 8 साल का अनुभव हो.

साफ है कि बैंकिंग सेक्टर शुरू से ही राजनीतिक दखलंदाजी का अड्डा था और हर सरकार ने उसे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया. किसी ने भी कभी इस क्षेत्र की भलाई के लिए नहीं सोचा और बैंकिंग को हमेशा जनता के पैसे को लूटने का जरिया समझा

और इसीलिए आज ये हालात हैं कि बैंकिंग प्रणाली में डूबत इस हद तक बढ़ गई है कि सारे उपाय सरकार के हाथ से निकल गए हैं और सरकार आरबीआई के सहारे बैंकों के लिए निजी निवेशकों का इंतजार कर रही है, जिससे अपना बोझ निजीकरण पर डाला जा सकें.

*लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर

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