आरटीआई को कुचलने के लिए नौकरशाह का षड्यंत्र

 

नागदा .सूचना अधिकार कानून जनता को एक बहुत बड़ा हथियार मिला है. लेकिन इस देश में इस कानून को एक सोची-समझी रणनीति के तहत समाप्त किया जा रहा है .कारण की इस कानून की संरचना में कुछ विसंगतियां है. सूचना अधिकार आवेदन का निराकरण करने की जिम्मेदारी उसी विभाग के अफसर के पास होती है जो भ्रष्ट तंत्र में शामिल है. अथवा उसके किसी सहयोगी का काला कारनामा जुड़ा होता है इसलिए अधिकारी पहले तो जानकारी देने में टालमटोल करते हैं या फिर आवेदन को निरस्त कर देते. आम जनता इसका विरोध कानून के पति अज्ञानता के चलते नहीं कर पाती. जब मामला प्रथम अपील में पहुंचता है वहां पर भी प्रथम अपीलीय अधिकारी उसी विभाग का उच्च अधिकारी होता है. वह अपने विभाग के अफसर को बचाने के लिए अपील का निराकरण ठीक से नहीं करता. जब मामला आयोग में पहुंचता है वहां पर बरसो इंतजार करना पड़ता है, सूचना आयुक्त के पद खाली पड़े रहते. सरकार इन पदों को भरने के लिए कोई रुचि नहीं रखती हो. सूचना आयुक्त के पद के लिए नौकरशाह आगे आ जाते हैं जो लोग रिटायर होते हैं उनको इस पद के लिए मौका मिल जाता है .हालांकि इस पद के लिए पत्रकारिता से जुड़े लोग एवं सेवा कार्य मे लगे लोगों को भी नियुक्त किया जाता है लेकिन सरकार नौकर शाह को प्राथमिकता देती है ,ये अलग बात है कि जिन जिन राज्यों में पत्रकार कोटे से आयुक्त का चयन हुआ है उन्होंने बेहतर परिणाम दिए. मध्यप्रदेश में राहुल सिंह वआत्मदीप पत्रकारिता कोटा से ही आयुक्त बने इन लोगों ने आरटीआई के क्षेत्र में कई नवाचार किए.

इन सूचना आयुक्तों ने कानून का गला घोटने वाले अफसरों को दंडित भी किया है. सरकार अपनी योजना का प्रचार प्रसार के लिए विज्ञापन जारी करती है लेकिन जनता को जागरूक करने के लिए इस कानून का कोई विज्ञापन अखबारों में नहीं दिखता है. इस कानून के बारे में कोई प्रशिक्षण अफसरों को नहीं दिया जाता कार्यालय के कर्मचारियों को कोई जानकारी नहीं उसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है जब आयोग में पेशी होती है जनता स्वयं के खर्चे वहां पहुंचती है इधर लोक सूचना अधिकारी प्रथम अपीली अधिकारी को भी बुलाया जाता है, लेकिन यह लोग सरकारी खर्च पर वहां पहुंचते हैं और जनता की तिजोरी में फर्जी बिल लगाकर अनाप-शनाप राशि भी वसूलते हैं.

कैलाश सनोलिया( लेखक)

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