आयकर विभाग के अफसर करें दिमाग का उपयोग, तुच्छ मुद्दों पर न करें करदाता को परेशान और समय की बरबादी: मप्र हाईकोर्ट

 

*सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर :

आयकर विभाग एक प्राथमिक और तुच्छ सिद्धांत को न समझते हुए गैर जिम्मेदाराना एवं बेपरवाह रवैया अपनाते हुए आर्डर पास करता है जिससे न केवल करदाता बल्कि कोर्ट और राजस्व विभाग का समय एवं पैसे बर्बाद होते हैं जो कि और किसी बेहद जरूरी मुद्दों पर लगाए जा सकते थे.

ऐसा कहना माननीय उच्च न्यायालय मप्र का अभी हाल में ही पास हुए निर्णय का है.

*यह केस हैं – डब्ल्यू पी क्र: ८३११ आफ २०२३ नितिन नेमा वि. पीसीआईटी भोपाल आयकर विभाग – निर्णय दिनांक १६/०८/२०२३.*

*इस केस में क्या मुख्य बिंदु और सिद्धांत सामने आए:*

१. करदाता द्वारा वित्तीय वर्ष २०१५-१६ यानि असेसमेंट वर्ष २०१६-१७ में १६ स्कूटर निर्यात कर बेचे गए जिसकी सकल बिक्री रुपए ७२०५०८४/- उसे प्राप्त हुए और इस वर्ष की उसके द्वारा आयकर रिटर्न नहीं फाइल की गई.

२. आयकर विभाग द्वारा धारा १४८ के अंतर्गत नोटिस जारी करते हुए पूरी बिक्री को संपत्ति मानकर इसे ५० लाख रुपए से अधिक आय का केस बनाते हुए धारा १४८ए में आर्डर पास कर दिया जाता है, जिसके खिलाफ करदाता उच्च न्यायालय ने रिट याचिका दायर करता है.

३. आयकर विभाग आयकर कानून की धारा २(२४) जिसमें आय की व्याख्या की गई है, धारा १४ जिसमें आय के विभिन्न मद बताए गए हैं, धारा २८ जिसमें व्यापार और पेशे की आय की गणना बताई गई है एवं धारा ४४एडी जिसमें प्रिज्मटिव या अनुमान के आधार पर आय की गणना बताया गया है – का हवाला देते हुए कहा गया कि करदाता की सारी सकल बिक्री आय होती है.

४. माननीय उच्च न्यायालय ने उपरोक्त आय की धाराओं के साथ धारा १४८ जिसमें करयोग्य आय नहीं बताए जाने की स्थिति में विभाग द्वारा नोटिस जारी करने का प्रावधान, धारा १४८ए जिसमें विभाग द्वारा नोटिस जारी करने से पूर्व जांच करना और धारा १४९ जिसमें नोटिस जारी करने की समय-सीमा – का भी आंकलन किया गया.

५. माननीय उच्च न्यायालय ने कहा कि सारी चर्चा के बाद मूल प्रश्न यही है कि क्या करदाता की सकल बिक्री या रशीद आय मानी जाए या नहीं?

६. क्या सकल आय या करयोग्य आय में अंतर होता है?

७. करयोग्य आय की कहीं पर भी व्याख्या नहीं की गई है लेकिन धारा २(२४) और २८ में इसका गणना का आधार बताया गया है जो साफतौर पर कहता है कि सकल आय में से विभिन्न छूटों को घटाकर ही करयोग्य आय की गणना की जाती है. इसका मतलब करयोग्य आय हमेशा सकल आय से कम होती है.

८. माननीय उच्च न्यायालय ने यह भी व्यक्त किया कि पेनल्टी या शास्ति भी करयोग्य आय पर की गई कर चोरी पर ही लगाई जाती है, इसलिए टैक्स लगाने या आर्डर पास करने से पूर्व विभाग को करयोग्य आय की गणना करना जरूरी है.

९. ऐसा ही निर्णय हाल में ही *कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा डब्ल्यू पी ७६४७/२०२३ दिनांक २४/०५/२३ सनथ कुमार मुरली वि. आईटीओ के केस में पारित किया गया* जिसमें रुपए ५५७७७००/- की बिक्री को करयोग्य आय मानने से इंकार कर दिया गया.

१०. मप्र उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि धारा १४७ से लेकर १५१ तक कहीं भी करयोग्य आय क्या होनी चाहिए नहीं बताया गया है और ऐसे में करदाता इसका लाभ ले सकता है. धारा १४८, १४८ए एवं १४९ में करयोग्य आय क्या होनी चाहिए, इस बारे में कोई प्रावधान नहीं है.

११. आयकर विभाग द्वारा धारा १४८ के अंतर्गत नोटिस में कहीं भी जिक्र नहीं किया गया कि करदाता की संपत्ति किस रूप में हैं – जमीन जायदाद, शेयरों, निवेश, आदि.

१२. करदाता द्वारा नोटिस के जबाब में साफतौर पर इंगित किया गया है यह पैसा १६ स्कूटर बेचने पर प्राप्त हुआ. इसके अलावा करदाता द्वारा इस सकल बिक्री पर हुई करयोग्य आय की गणना कर प्रस्तुत किया गया. साफ है कि करयोग्य आय सकल आय या बिक्री से कम होती.

१३. विभाग ने एक साधारण, तुच्छ और प्राथमिक सिद्धांत को समझने और परखने में बेपरवाह और गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया. बिक्री और करयोग्य आय के अंतर को न समझना विभाग द्वारा अपनाई जा रही एक केज्यूल एप्रोच है.

१४. मप्र उच्च न्यायालय ने *डब्ल्यू पी १५२४४/२०२३ दिनांक ०९/०८/२३ अमृत होम्स वि. डीसीआईटी के केस में धारा १४८ए की उपयोगिता पर निर्णय दिया था* कि इस धारा का उपयोग ऐसे गैर जरूरी, तुच्छ और फलहीन केस में किया जा सके ताकि बहुमूल्य समय और पैसे की बरबादी न हो. साथ ही धारा १४८ का उपयोग गैर नियंत्रित और गैर जिम्मेदाराना तरीके से न हो सकें.

१५. यदि विभाग इस मूल सिद्धांत को समझ पाता कि बिक्री और करयोग्य आय में क्या अंतर होता है तो यह केस ५० लाख रुपए से नीचे होता और इस स्तर तक नहीं पहुंचता.

१६. आयकर विभाग जिसके पास हजारों वित्तीय एवं टैक्स एक्सपर्ट की टीम होती है, वह ऐसे प्राथमिक स्तर की ग़लती करता है जिसके कारण करदाता को परेशान और हैरासमेंट किया जाता है. करदाता के साथ इस कोर्ट का समय और शक्ति गैर जरूरी मुद्दे पर बर्बाद की जाती है जो शायद अन्य जरूरी मुद्दों पर उपयोग की जा सकती थी.

१७. विभाग द्वारा छोटी सी बात को न समझना, बिक्री को आय मानना, प्रावधानों का गलत मतलब निकालते हुए गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाना एवं करदाता को परेशानी में डालना तथा कोर्ट का समय और शक्ति बर्बाद करने के लिए प्रतीकात्मक रुपए २५०००/- की पेनल्टी लगाई जाती है. इसमें से रुपए १५०००/- हाईकोर्ट कर्मचारी फंड में तथा रुपए १००००/- करदाता को हुई परेशानी के कंपन्शएशन के रूप में दिया जाएगा.

*मप्र उच्च न्यायालय का उपरोक्त निर्णय एक मील का पत्थर साबित होगा जिसने न केवल करयोग्य आय की गणना के प्रावधान को समझाया बल्कि विभाग द्वारा धारा १४८ एवं १४८ए का सही उपयोग हो, इसके लिए विभाग को चेतावनी भी दी है और फटकार भी लगाई है कि साधारण और व्यापारिक लेन-देन समझने के लिए दिमाग लगाए ताकि करदाता का हैरासमेंट किसी भी स्तर पर रोका जा सके.*

*जहां करदाता ग़लत है, उस पर कार्यवाही करें लेकिन छोटे से छोटे और गैर जरूरी मुद्दे हाईकोर्ट तक पहुंचे – यह नहीं होना चाहिए. हजारों विशेषज्ञ होने के बावजूद आयकर विभाग साधारण व्यापारिक लेन-देन की समझ न रखें, हैरान करता है.*

*सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर

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