असल मुद्दों से बढ़ती दूरियां


कोरोनाकाल में केवल और केवल उन गरीबों का ही कुछ भला हुआ, जिन्हें लगातार सरकार और एनजीओ के माध्यम से राशन से लेकर सब कुछ मिलता रहा। और उन्हें, जो सरकार की लाड़ली कारपोरेटकंपनियों का हाल तो यह है कि उनकी पांचो उंगलियां घी में और सिर कढ़ाई में। हां, लूटने वाले अस्पतालों की भी बन आई, कई पीढिय़ों के लिए कमा लिया, ब्याज में लोगों की जान भी लीं। लेकिन एक बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है, जो हर तरह की सहायता से वंचित रहा। नौकरी उसकी गई। परिवार के सदस्य उनके चले गए। नौकरी बची, तो वेतन में कटौती हो गई। और उस पर अब महंगाई, बढ़ी हुई स्कूल-कालेज की फीस भी उन्हीं के माथे। उन्हें किसी तरह की रियायत कहां…?
मध्यम और बहुत कुछ उच्च मध्यम वर्ग की यही कहानी है। बीपीएल का कार्ड जिसने बनवा लिया, जिसने आयुष्मान कार्ड बनवा लिया, बस वही थोड़ा राहत महसूस कर सकता है। खबरों पर जाएं तो, ऐसे बहुत से लोग हैं जो बैंकों में बचत पर मिलने वाले ब्याज से अपना ख़र्च चलाते हैं। यह एक निश्चित सी कमाई होती है और ज़्यादातर मामलों में सीमित भी। ये कमाई भी घटने लगी है। माइनस में जाने लगी है। यही कारण है कि सोशल मीडिया पर भक्तों की कतार हो या फिर गोदी मीडिया के चैनल, तालिबान से लेकर ऐसे मुद्दों को ही दिखा रहे हैं, जिनका कोई सिर पैर नहीं है। वो इसलिए ताकि आम लोगों की खस्ता आर्थिक हालात पर चर्चा न हो सके। यह तो मानकर चलें कि अच्छी नौकरी और अच्छी सैलरी के दिन चले तो चले ही गए, सुरक्षित बचत के भी दिन चले गए। या तो शेयर बाज़ार का खेल सीख लीजिए या फिर माइनस में जा रही कमाई को देखते रहिए।
भारतीय स्टेट बैंक की एक रिपोर्ट पिछले दिनों आई है, जिसमें कहा गया है कि बचत पर ब्याज से जीने वाले लोगों की कमाई निगेटिव हो गई है। बैंक की अर्थशास्त्री ने सुझाव दिया है कि जो वरिष्ठ नागरिक हैं उनकी हालत ठीक नहीं है। सरकार को बचत के ब्याज पर आयकर लगाने पर विचार करना चाहिए। इस समय वरिष्ठ नागरिकों को पचास हज़ार से अधिक ब्याज होने पर टैक्स लगता है। सवाल है कि ऐसे लाखों नहीं, करोड़ों लोग हैं जिनकी नौकरी चली गई है और वे बचत पर ही गुज़ारा कर रहे हैं। ब्याज कम होने की मार उन पर पड़ी है, उन्हें कम से कम ब्याज पर लगने वाले टैक्स से राहत तो ही जा सकती है। स्टेट बैंक ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि वरिष्ठ नागरिकों को टैक्स में राहत देने से उनके हाथ में खर्च के लिए पैसा आएगा। बैंक ब्याज बढ़ाने की स्थिति में नहीं हैं। मुद्रा स्फीति, महंगाई की दरों को ब्याज के साथ समायोजित करने पर पता चलता है कि कमाई कितनी कम हो गई है। इसलिए भी लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। संसद में एक सवाल पूछा गया था कि क्या यह सही है कि बैंकों में एक साल के लिए जमा पैसे पर मिलने वाला ब्याज महंगाई की दर से कम है? जून 2020 से मई 2021 के बीच मंहगाई की दर और ब्याज दरों का एक चार्ट सरकार ने बनाकर एक लिखित जवाब में पेश किया है। आप देख सकते हैं कि बैंकों का ब्याज महंगाई की दर से कितना कम हो चुका है। इस जवाब में वित्त राज्य मंत्री ने बताया है कि बैंकों के ब्याज दरों में कमी करने से भी उधार लेने की दर में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है. जस की तस बनी हुई है।
देश में बेरोजगारी बढ़ रही है। नौजवानों के पास नौकरी नहीं है। बुज़ुर्गों के पास बचत से कमाई कम हो रही है। 80 करोड़ लोग मुफ्त अनाज की लाइन में लगे हैं। यूपी की आबादी 24 करोड़ है. 24 करोड़ में से 15 करोड़ लोग मुफ्त राशन पर आश्रित हैं। अगर इससे भी आबादी के लिहाज़ से भारत के इस सबसे बड़े राज्य की गऱीबी का अंदाज़ा नहीं होता है तो आप भारतीय रिज़र्व बैंक की हैंडबुक आफ द स्टेटिस्टिक्स आन द इंडियन इकानामी 2020-21 पढ़ सकते हैं। इसमें बताया गया है कि यूपी की प्रति व्यक्ति आय 44, 600 रुपये है, जबकि पंजाब और उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति आय सवा लाख से अधिक है। गोवा की तो 3 लाख है। मध्यप्रदेश की प्रति व्यक्ति आय एक लाख के करीब बताई जाती है, लेकिन राज्य पर कर्ज पौने तीन लाख करोड़ रुपए है और साढ़े सात करोड़ में से साढ़े चार करोड़ तक बीपीएल में चले गए हैं। अगस्त महीने में सरकार ने भी लोकसभा में 2018-2019 के लिए प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा पेश किया है।
शेयर बाजार नई ऊंचाइयां तय कर रहा है, लेकिन नब्बे प्रतिशत से ज्यादा आबादी के पास जितनी सम्पत्ति है, उतनी दस प्रतिशत लोगों के पास है। यह आंकड़ा भी तो सर्वे में ही आया है। असमान सम्पत्ति वितरण की यह व्यवस्था हमें कहां ले जाएगी, आप अंदाजा ही लगा सकते हैं। फिर भी सरकार के साथ ही देश का बहुत बड़ा पढ़ा-लिखा तबका वास्तविक मुद्दों से मुंह चुराता दिख रहा है। तथाकथित गोदी मीडिया हो या सोशल मीडिया का बड़ा वर्ग, कहीं भी असल मुद्दों पर बात खुलकर नहीं हो रही है। कहीं भी महंगाई पर चर्चा नहीं हो रही है। कहीं भी बेरोजगारी पर लंबी लड़ाई की बात नहीं चल रही है। उलटे ऐसे मुद्दे जानबूझकर रद्दी की टोकरी में डाले जा रहे हैं।

  • संजय सक्सेना
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