वीर क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को अंग्रेजों ने अंडमान जेल से रिहा कर महाराष्ट्र के रत्नागिरि में नजरबंद किया था। वहां उन पर सार्वजनिक रूप से राजनीति और लेखन आदि कार्यों पर प्रतिबंधलगाया गया था। फिर भी वीर सावरकर ने अंग्रेजों की आंख में धूल झोंकते हुए सामाजिक तथा मानसिक क्रांति का कार्य अनवरत चालू रखा। ये सब वे तब भी कर लेते जबकि अंग्रेज सरकार उन पर कड़ी निगरानी रखती और अचानक छापा मारती। एक बार जब पुलिस उनके घर पर इसी तरह अचानक छापा मारकर झड़ती लेने पहुंची तो उन्होंने पुलिस अधिकारियों से कहा- ‘हम परिवार वाले घर से बाहर खड़े हो जाते हैं। आपको जो भी ढूंढना है, ढूंढ लीजिए। मगर एक बात याद रखिए कि मैंने इंग्लैंड में चार वर्षों तक स्कॉटलैंड पुलिस को भी छकाया है।’
यह सुन पुलिस वाले हैरत में पड़ गए थे। दरअसल, पुलिस की इस छापामारी के पीछे एक ठोस कारण था। क्रान्तिवीर सरदार भगत सिंह ने वीर सावरकर द्वारा लिखित ऐतिहासिक और प्रतिबंधित पुस्तक ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ की दो हजार प्रतियां गुप्त रूप से छपवा कर बेचीं और वह पैसा क्रांतिकारी संगठन को दिया था। भगत सिंह ने पुस्तक की दो पहली प्रतियां वीर सावरकर को आदर के साथ भेजी थीं, जिन्हें सावरकर ने देखकर अपने किसी अनुयायी के पास भेज दिया था।
उन्हीं दिनों सावरकर सरदार भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों पर कुछ लिख रहे थे। उनके हाथ में कागजों का पुलिंदा था। तभी अचानक पुलिस आ गई और घर की झड़ती लेने लगी। झड़ती के दौरान पुलिस अधिकारी एक कागज पर इतिवृत्त लिख रहे थे और उन्हें कागज के नीचे आधार की आवश्यकता थी। वीर सावरकर ने अपने हाथों में रखा कागजों का वही पुलिंदा उस कागज के नीचे आधार देने के लिए दे दिया।
इस पर पुलिस अधिकारी ने उन्हें धन्यवाद भी दिया। पुलिस ने पूरा घर छान मारा लेकिन वह कागजों का पुलिंदा नहीं देखा, जो पुलिस अधिकारी ने कागज के नीचे लगा रखा था। इस तरह पुलिस को वह मिला भी नहीं, जो वे ढूंढने आए थे और सावरकर ने वह बचा भी लिया, जिसे वे बचाना चाहते थे।